पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नवोन रस] ३२७ बचि सासु जेठानिन सो पिय तें दुरि घूघट में हग जोरै लगी। दुलही उलही सब अंगन ते दिन द्वै तें पियूष निचोरै लगी ।। देखिए बिहारी के 'संक्रोन काल' को नायिका का कैसा मनो- रंजक चित्र-सा खिंच गया है। शिशुताई, लड़कपन, अभी नहीं गई है पर यौवन का आगम आरंभ हो गया है। पति का नाम सुनते ही भौहें तिरछी हो जाती हैं और गुरुजनमें से बचाकर तथा पति से भी छिपा कर घूघट से उसकी ओर देखने लगी है। दो ही दिन से मुग्धा बाला के अंग ऐसे उमड़ रहे हैं मानों अमृत बरस रहा है । यहाँ अभी प्रेम का अंकुरण हो रहा है । आलं बन नायक नायिका हग जोर रहे हैं और एक दूसरे के विषय की बातें सुनते हैं, जिससे उनके प्रेम को उद्दीप्ति मिलती है। भौंह मरोरना और आँखें बचाकर देखना अनुभावों से स्थायी भाव रति के पुष्ट होने पर शृङ्गार रस का परिपाक हो जाता है। २-हूलति हिये में प्रानप्यारे के विरह-सूल , फूलति उमंग भरी झूलति हिंडोरे पै। गावति रिमावति हँसावति सबन हरि- चन्द चाव चौगुनी बढ़ाह घन घोरे पै ॥ वारिवारिडारौं प्रान हँसनि मुरनि बतरान मुँह पान कजरारे हग डोरे पै। ऊनरी घटा में देखि दूनरी लगी है आहा, कैसी प्राजु चूनरी फनी है मुख गोरे पै।। सभी शोभाओं से युक्त वर्षाऋतु आगई है, हिंडोला पड़ा हुआ है और एक गौरवर्णा नायिका उस पर बैठकर पेंग लगा रही है। सखियाँ उस मनहरण दृश्य का वर्णन कर रही हैं कि देखो यह प्राणप्यारे के हृदय में, हिंडोले पर दूर रह कर, विरह- 9 ,