पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३३

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शूल हूलते हुए किस प्रकार स्वयं उमंग के साथ झूल रही है । घोर धन के कारण अपना उत्साह बढ़ाते हुए गा रही है और सबको हँसाती रिमाती है। उसके हँसने, मुख फेरने, बोलने, मुख की लानी तथा आँखों के श्याम-रतनार डोरे पर, एक एक अदा पर, प्राण निछावर हो रहा है। क्या कहें, देखो इस हलकी घटा में इसका झूलने में दोहरा हो जाना कैसा अच्छा लगता है और सबके ऊपर उसके गोरे मुख पर आज चूनरी कैसी फब रही है। कितना सुन्दर चित्रण है, समा-सा बाँध दिया गया है। स्थायी भाव रति श्रावन तथा उद्दीपन दोनों ही के रहने से कैसी मान- दातिरेक में अनुभूत हो रही है। संयोग श्रृंगार रस का पूर्णरूर से इसमें परिपाक हो गया है। ३.-मनमोहन तैं बिछुरी जब सों , तन आँसुन सों सदा धोवती हैं। 'हरिचन्द जु' प्रेम के फंद परी कुल की कुल लाजहि खोवती हैं ।। दुख के दिन कों कोउ भाँति वितै , बिरहागम रैन संजोवती हैं हमही अपुनी दशा जान सखी , निसि सोवती है किधौं रोवती ॥ विरहिणी अपनी दशा का सखी से वर्णन कर रही है। कितनी सादगी से वह अपना दुख कह गई है और इसका सहृदयों पर कितना असर पड़ता है, यह सहृदय ही समझ सकते हैं। ठीक ही कहती है कि हम ही अपनी दशा जानै सखी ।' विप्रलंभ शृंगार का यह अतिसुन्दर उदाहरण है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह भी भमूल्य वस्तु है । इसके मुख्यतः चार भेद कहे गए हैं-युद्ध, धर्म, दान तथा दया। कर्म- वीर, सत्यवीर आदि भी कुछ भेद माने जाते हैं। इस रस के आलंबन नायक और प्रतिनायक होते हैं । प्रतिनायक या दानपात्र आदि की चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव हैं। युद्ध-दान-सत्य व्रापालन