पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कार्य अनुभाव देखि नवीन रस] ३२६ आदि के सहायक हैं। बीर रस के कुछ उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं। {-सावधान सब लोग रहहु सब भाँति सदा ही। जागा ही सब रहैं रैन हूँ सोहिं नाहीं ॥ कसे रहैं कटि रात-दिवस सब वीर हमारे । अस्वीठ सों होंहि चारजामें जिनि न्यारे । तोड़ा सुलगत चढ़े रहैं घोड़ा बन्दूकन। रहैं खुली ही म्यान प्रतंचे नहि उतरे छन ।। लेहिंगे कैसे पामर यवन बहादुर । श्रावहिं तो चढ़ि सनमुख कायर कर सबै जुर । दैहैं रन को स्वाद तुरन्तहि तिनहिं चखाई । जो पै इक छनहू सनमुख है करहिं लराई ।। इन पंक्तियों के एक-एक शब्द से उत्साह छलका पड़ता है, जो स्थायी भाव है। राजा नायक तथा यवन अाक्रमणकारी प्रति- नायक है। युद्ध में शत्र को परास्त करने की चेष्टा उद्दीपन है। सैनिकों को युद्धार्थ तैयार रखना अनुभाव है। गर्व, धैर्य आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार युद्ध वीर रस का पूर्णरूपेण परिपाक इन पदों में हुआ है । वीर रस की कविता में शब्दों को तोड़ मरोड़ कर और दो-दो तीन-तीन अक्षरों को एक में कूट कर एक कर डालना तथा ट-वर्ग का खूब उपयोग करना प्रधान लक्षण माना गया था, पर भारतेन्दु जी ने यह सब खड्ड बड्ड अकार्य न कर भी उद्धत पदों को वीर रस से परिप्लुत कर डाला है। इन्हें सुनकर केवल कानों ही तक कटु उत्साह नही रह जाता वरन् हृदय तक पहुँच कर श्रोताओं को उत्साह से भर देता है। शस्त्र लिये