पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३७

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9 [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कारण शोक हो रहा है, वही आलंबन है। उसके शव को देखना, उसका संस्कार करना आदि उद्दीपन विभाव हैं। अपने कर्म को कोसना, रोना, प्रलाप आदि अनुभाव हैं । निर्वेद, मोह, ग्लानि, स्मृति, उन्माद आदि व्यभिचारी हैं। 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक में करुण रस विशेष रूप से आया है, उसी से एक छोटा सा अवत- रा दिया जाता है-- जाकी पायतु जग नृपति सुनतहि धारत सीस । तेहि द्विज बटु प्राज्ञा करत अहह कठिन अति ईस ।। 'जिसकी आज्ञा संसार के राजे सुनते ही सहर्ष शिर पर धारण करते थे उस पर आज साधारण विद्यार्थी बालक हुक्म चलाता है। हे दैव ! आप अत्यन्त कठोर हैं।' यहाँ राजा हरिश्चन्द्र स्व- पत्नी के कष्टों का अनुभव करके दैव की निंदा कर रहे हैं । दुःखी महारानी शैव्या आलंबन, उनके कष्ट उद्दीपन तथा कर्म को कोसना अनुभाव हैं स्मृति,ग्लानि आदि इसके व्यभिचारी हैं। राजा हरिश्चन्द्र को पुनः रानी से मिलने तथा उनके कष्टों को दूर कर पुनः महारानी बनाने की रत्ती भर आशा नहीं है, इस लिए यहाँ करुण रस ही है। यदि कुछ भी मिलने की आशा होती तो यहाँ करुण रस न होकर करुण विप्रलंभ श्रृंगार हो जाता है। रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोष है । शत्रुालंबन तथा मुक्का चलाना, मार काट करना, युद्ध के लिये घबड़ाना आदि चेष्टाएँ उद्दीपन हैं । क्रोध से ओंठ चबाना, आँखें लाल करना, उग्रता आदि अनुभाव हैं । आक्षेप, व्यंग्य, घूरना, अमर्ष, मोह आदि संचारी हैं। एक उदाहरण लीजिये- तोरि गदा सो हृदय दुष्ट दुस्सासन केरो। तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो।।