पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४१

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सिर पै बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत । खींचत जीभहिं स्यार अतिहि श्रान द उर धारत ।। गिद्ध जाँघ कहँ खोदि खोदि के माँस उचारत ।। स्वान आँगुरिन काटि काटि के खान बिचारत कहुँ चील नोचि लै जात तुच मोह बढ्यो सबको हियो । मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कह दियो। आलंबन शव को देख कर स्थायीभाव जुगुप्सा उबुद्ध हो उठती है। शरीर की दुर्दशा देख कर उसकी दीप्ति होती है । मुख फेर लेना अर्थात् विचारों को उस ओर से हटाकर दूसरी ओर ले जाना अनुभाव है। मोह संचारी है। अद्भुत रस का स्थायी भाव विस्मय है, बालंबन आश्चर्य- जनक वस्तु है, और उद्दीपन अलौकिकता का वर्णन है, अनुभाव स्तंभ, स्वेद, रोमांच आदि हैं और भ्रांति, हर्षे आदि संचारी हैं . उदाहरणा लीजिए चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन मकोरन पाय । पै ब.रन के मन कबहुँ चलहि नहीं ललचाय । 'सत्य-हरिश्चन्द्र' में जब कापालिक रूप में धर्म ने राजा हरि- श्चन्द्र को रसेन्द्र देना चाहा था तब उनके इस कथन पर कि 'जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योंकि मैं तो देह के साथ ही अपना स्वत्व बेंच चुका ।' वह अत्यंत आश्चर्यान्वित होकर कहता है कि 'चाहे मेरु पर्वत प्रलय के आँधी पानी के झटके पाकर चलने लगे तो चले पर सत्य वीरों का मन कभी चलायमान नहीं होता।' यहाँ धर्म का विस्मय स्थायी भाव है। हरिश्चन्द्र का रसेन्द्र न लेना आलंबन है। न लेने का कारण परदासता मात्र