पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४२

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नवीन रस] ३३५ बतलाना उद्दीपन है। धर्म का इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र की महिमा का वर्णन करना अनुभाव है। शांत रस का स्थायी भाव शम है । संसार की असारता तथा परमेश्वर का स्वरूप आलंबन और तीर्थ यात्रा, सत्संग, मंदिर आदि उद्दीपन है। रोमांच भादि अनुभाव और निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि व्यभिचारी भाव हैं। उदाहरण- ब्रज के लता पता मोहि कीजै। गोपी-पद-कज पावन की रज जामैं सिर भीजै ।। पावत जात कुज की गलियन रूप सधा नित पीजै । श्री राधेराधे मुख, यह बर मुँह माँग्यो हरि दीजै ॥ यह पद श्रीनारद जी ने श्रीशुकदेव जी के ब्रजभूमि के विषय में पूछने पर गाया था। सांसारिक झंझटों से मन हटकर श्रीकृष्ण भगवान तथा श्री राधिका जी के प्रति लगे, इसलिए ब्रज का लता पता होने की इच्छा ही शम स्थायी भाव है। इसका प्रालंबन युगल-मूर्ति श्रीराधाकृष्ण है। तीर्थयात्रा (ब्रजयात्रा) और श्रीशुक- देव जी का सत्संग उद्दीपन है। स्मृति, हर्ष, निर्वेद संचारी भाव हैं और रोमांच, नेत्र में आँसू तथा प्रेमावस्या अनुभाव हैं, जिनसे इस रस का परिपाक पूर्णरूपेण होना स्पष्ट है । इन नब रसों के सिवा, जैसा लिखा जा चुका है, भारतेन्दु जी ने वात्सल्य, सख्य, भक्ति या दास्य, आनंद या प्रमोद और प्रेम या माधुर्य पाँच नव्य रसों की कल्पना की है। “योंही शृंगार रस में भी ये अनेक सूक्ष्म भेद मानते थे, जैसे ईर्ष्या-मान के दो भेद, विरह के तीन, शृङ्गार के पंचधा, नायिका के पाँच और गर्विता के आठ; यों ही कितने ही सूक्ष्म विचार हैं जिनको तरत्न महाशय ने सोदाहरण इनके नाम से अपने उक्त ग्रंथ में मानकर उद्धृत