पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४३

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र किए हैं। इनके इन नए नए मतों पर उस समय पंडित-मंडली में बहुत कुछ लिखापढ़ी हुई थी, इसका आंदोलन कुछ दिनों तक सुप्र- सिद्ध 'पंडित' पत्र में ( जो 'काशी विद्या-सुधानिधि' के नाम से संस्कृत कॉलेज से निकलता है) चला था। खेद का विषय है कि इस विषय का पूरा निराकरण वह अपने किसी ग्रंथ में न कर सके।" अलंकार विभावों को पाकर भावों का जो स्वाभाविक उद्रेक होता है, उसका प्रत्यक्षीकरण अनुभावों द्वारा होता है । इस प्रकार से रस- पुष्ट काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म अलंकार कहलाते हैं, जिन्हें अस्थिर भी कहा गया है। जिस प्रकार मनुष्य के गुण स्थिर होते हैं, पर उसका अलंकरण-गहने-अस्थिर होते हैं उसी प्रकार काव्य के भी गुण तथा अलंकार होते हैं। अलंकार के दो भेद होते हैं। काव्य का शब्द तथा अर्थ दोनों शरीर हैं इसी लिए शब्दा- लंकार तथा अर्थालंकार दो भेद हो गए। शब्दों में चमत्कार उत्पन्न करने वाले अनुप्रास यम कादि अलंकार तभी तक सुन्दर ज्ञात होते हैं जब तक वे बिना प्रयास के आपसे आप महज ही श्रा जाते हैं पर जब जबरदस्ती अकारण ऐसे पलं कारों की भरती की जाती है तब वे भूषण नहीं रह जाते। अर्थालंकार काव्य के भावों की अनुभूति को तीव्र करने या वर्णित वस्तुओं के रूप, गुण, क्रिया आदि का उत्कर्ष दिखलाने में सहायक होते हैं। यदि वे ऐसा न कर सके तो वे अलंकार न होकर भारमात्र हो जाते हैं। अलंकार अलंकार ही है, वह कोई विलक्षण अज्ञय माश्चर्य- जनक तिलस्मी वस्तु नहीं है, इसलिए उसका चमत्कार या उसकी रमणीयता काव्यांगों की शोभा ही बढ़ाना है और अन्य कुछ नहीं है।