पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४४

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अलंकार] ३३७ महाराज हरिश्चन्द्र स्त्री-पुत्र के विरह से दुखी तथा राजो- चित सभी पाराम से वंचित थे ही, उस पर छायारहित स्मशान घाट पर वर्षा भी जोरशोर से होने लगी। इस पावस का असर स्वभावतः दुःस्त्री हृदय के कष्ट को अधिक करना ही मात्र था। पावस की सारी शोभा उन्हें स्मशानवत् दृष्टिगोचर हुई। उन्होंने पावस की शोभा का जो वर्णन किया है वह उनके हृदयस्थ भाव' का पूर्ण द्योतक है । विद्युन्माला को चमक चिता की लपटें, खद्योतगण चिनगारी, बगुलों की माला ऊपरी श्वेत लपट, काले वादल काली भूमि, बीरबहूटी रक्तविंदु, जलधार अश्रुधारा और दादुर की रट दुःखी संबंधियों का रुदन ज्ञात होता है। अर्थात् वियोगियों के कष्ट को बढ़ाने के लिर यह पापा पावस स्मशान-सा बन कर पाया है। उत्प्रेक्षा-युक्त सांग रूपक कितना सुदर बना है, जिससे भाव की अनुभूति तीव्र होती है और वर्णित विषय का भो उत्कर्ष बोध होता है। कवित्त इस प्रकार है- चपला की चमक चहूँधा सों लगाई चिता , चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है। हेती बगमाल स्याम बादर सु भूमि कारी, बीरबधू लहू बूंद भुव लपटायो है। 'हरीचन्द' नीर-धार आँसू सी परत जहाँ, दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है दाहन वियोग दुखियान को मरे हूँ यह , देखो पारी पावस मसान बनि और रूपक लीजिए। विरहिणी श्री चंद्रावली जी से उनकी सखियाँ हिंडोला पर झूलने के लिये आग्रह कर रही हैं दुखी हृदय को यह सब खेल कहाँ सुहाता है, वह कहती हैं कि २२ प्रायो है॥ एक