पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४५

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'मेरा जी हिंडोरा पर और उदास होगा' । उसके तो नेत्र आप ही आप हिंडोले झूलते रहते हैं। पूरे हिंडोले का रूपक खड़ा कर दिया गया है । वर्षा भी मौजूद है तथा मलार का भी पालाप हो रहा है। पल पटुली पै डोर प्रेम की लगाय चारु आसा ही के खंभ दोय गाइ कै घरत हैं। झुमका ललित काम पूरन उछाह भर्यो, लोक बदनामी झूमि झालर करत हैं। 'हरीचन्द' आँसू दृग नीर बरसाइ प्यारे, पिया गुन-गान सो मलार उचरत हैं। मिलन मनोरथ के मोंटन बदाइ सदा, बिरह हिंडोरे नैन मूल्योई करत है। किसी . दानवीर सज्जन की दुर्दशा का वृत्त सुनिए । यथा- शक्ति दान करते हुए वह कितने प्रकार के कष्ट सहता है और उससे लाभ उठाने वाले उसका क्या प्रतीकार देते हैं, इसे वृक्ष पर घटा कर कवि इस प्रकार कहता है- क्यौं उपज्यौ नरजोक १ ग्राम के निकट भयो क्यों । सघन पात सों सीतल छाया दान दया क्यों ? मीठे फल क्यों फल्यो। फल्यौ तो नम्र भयो कित ! नम्र भयो तो सहु सिर पैं बहु विपति लोक कृत ।। तोरि मरोरि उपारिहैं पाथर हनिहैं सवहि नित । जे सजन नै कै चलहि तिनकी यह दुर्गति उचित ॥ इसके उत्तर में धन की अन्योक्ति की जाती है कि सब कुछ दे देने पर भी मेघ की बढ़ाई है । दानी प्रतिफल नहीं चाहता, उसे दान देने ही में सुख मिलता है। कवि कहता है- .