पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४६

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अलंकार] ३३६ चातक को दुख दूर कियो पुनि दोनो सबै जग जीवन भारी। पूरे नदी-नद-ताल-तलैया किए सब भाँति किसान सुखारी।। सखे हूँ रूखन कीने हरे जग पूज्य महामुद दै निज बारी। हे धन आसिन लो इतनी करि रीते भए हू बड़ाई तिहारी ।। वृक्ष और मेघ पर अन्योक्तियाँ कहकर दानी ही की प्रशंसा की गई है और इनमें अप्रस्तुत प्रशंशा अलंकार भावों को व्यंजमा का पूर्णोत्कर्ष करता है। भ्रमर भाम की बौर देखकर लोभ के मारे उसी पर बौराया हुआ मँडरा रहा है। यहाँ भ्रमर के बहाने प्रिय में प्रिया-प्रति प्रीति पैदा होने का कथन किया गया है, इसलिए समासोक्ति है। भौरा रे बौरान्यो जखि बौर । लुबध्यो उतहि फिरत मँडरान्यो जात कहूँ नहिं और ।। तपस्वी सत्यवान को बन में देख कर उसके सौंदर्य पर सभी मोहित हो जाती हैं और कहती हैं कि- लखो सखि भूतल चन्द खस्यो । राहु-केतु-भव छोड़ि रोहिनिहि या बन आह बस्यो ।। कै सिव-जय-हित करत तपस्या मनसिन इत निबस्यो । कै कोऊ बनदेव कुञ्ज बन बिहार बिलस्यो । इसमें संदेहालंकार द्वारा सत्यवान के सौंदर्य का, उसके रूप का अतीव अनुरंजक वर्णन किया गया है। रूप का अनुभव तीव्र करने में यह अलंकार हर पहलू से सहायक हो रहा है। ऊधो जी ज्ञान छाँट रहे हैं पर ब्रजबालाओं पर उसका कुछ भी असर नहीं हो रहा है। श्याम की खरी प्रीति के आगे इनकी शिक्षा कौन मानता है। सारी मंडली ही बिगड़ गई है। एक हो