पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४७

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३४० [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तो उसे कोई सिखनाए यहाँ तो सब की सब मदमस्त हैं । एक नहीं दो लोकोक्तियाँ साधारण कथन को अलंकृत कर रही हैं। सुनिए- घो जू सूधो गहो वह मारग गन की तेरे जहाँ गुदरी है। कोऊ नहीं सिख मानि ह्याँ इक श्याम को प्रोति प्रतोति खरी है ।। 'ये बृजबाला सबै इक सो 'हरिचन्द जू' मण्डली ही विगरो है। एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए प ही में यहाँ भांग परी है ।। जब कुछ विशेष अभिप्राय लिए हुर विशेषण का प्रयोग किया जाता है तब उसे परिकर अलकार कहते हैं । 'सुजान' अर्थात् अच्छे जानकार, खूब जानने वाले कहलाकर भी दूसरों के मन की पीड़ा नहीं जानते । यहाँ सुजान शब्द साभिप्राय है और कुल पद को चमत्कृत करता है। लै मन फेरिबो जानी नहीं बलि नेह निबाह कियो नहिं श्रावत । हेर कै फेरि मुखै 'हरिचन्द जू' देखन हूँ को मैं तरसावत ।। प्रीत पपीहन को धन साँवरे पानिप रूप कौं न पिप्रावत । जानौ न नेक बिथा पर की बलिहारी तऊ हौ सुजान कहावत । प्रेम जे हि लहि फिर कह हहन की पास न चित में होय । जयति जगत पावन करन प्रेम बरन यह दोय ।। प्रेम एक मनोवृत्ति या भाव है, जो जीवमात्र में स्थायी रूप से रहता है । यह विकार है, जो किसी अन्य जोव, वस्तु आदि के देखने से या उसके गुण श्रवण करने से या इसी प्रकार के किसी दूसरे साधन से हमारे हृदय में उबुद्ध होता है और हम उससे विलग रहना नहीं चाहते। जिस वस्तु पर हमारा प्रेम हो