पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४८

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प्रेम] ३४१ जाता है उस वस्तु को हम सहा अपने पास रखना चाहते हैं या उसके पास रहना चाहते हैं । यदि ऐसा हम कर सकते हैं तो हम संतुष्ट रहते हैं और यदि नहीं कर सकते हैं तो हमें अतीव कष्ट होता है । इस प्रेम के अनेक प्रकार के भेद हो सकते हैं । प्रेम एकांगी तथा पारस्परिक दोनों होता है । यदि हमारे प्रेम-पात्र का भी हम पर प्रेम है तो वह पारस्परिक है, नहीं तो वह एकांगी ही रह जायगा। प्रेम उत्तम, मध्यम तथा अधम भी होता है । एक रस रहने वाला नि:स्वार्थ प्रेम, जो भक्ति में बदल जाता जाता है, पहिला है। मित्रता आदि अकारण प्रेम दूसरा स्वार्थमय प्रेम अतिम है पर इसे वास्तव में ऐसा पवित्र नाम न देना ही उचित होगा। इन सब भेदों के सिवा भी यह कहना उचित होगा कि प्रेम अत्यन्त व्यापक शब्द है जिसके अंतर्गत दांपत्यप्रेम, देशप्रेम, ईश्वरोन्मुखप्रेम, वात्सल्य स्नेह आदि सभी आ सकते हैं 'परम प्रेमनिधि रसिकवर' भारतेंदु जी उसी को सच्चा आदर्श प्रेम मानते हैं जो एकांगी, अकारण, नि:स्वार्थ, सदा समान रूप से रहनेवाला और पति ही को सर्वस्व मानने वाला हो। सुनिए- एकांगी बिनु कारने इक रस सदा समान । प्रियहि गर्न सरवस्व जो सोई प्रेम प्रमान ।। प्रेम का महत्व भी कवि इस प्रकार प्रगट करता है कि बँथ्यौ सकल जग प्रेम में , भयो सकस करि प्रेम । चलत सकश लहि प्रेम को , बिना प्रेम नहिं छेम ।। भारतेंदु जी ने अपनी कविता में जिस प्रेम का अधिक .