पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३४९

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३४२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र वर्णन किया है वह दांपत्य प्रेम के अंतर्गत होते हुए भी ईश्वरोन्मुखी है। कुछ कविता कोरी सांसारिक प्रेम की भी है। इनके मौलिक नाटकों में शुद्ध शृंगारिक एक भी नहीं है, जिससे. इनके दांपत्यप्रेम की पद्धति का कुछ पता लगता। स्फुट कवि- ताएँ प्रेम विषयक बहुत हैं पर इनमें विषय-वासनादि से लिप्त साधारण पद बहुत कम र सराज शृङ्गार का स्थायी भाव प्रेम है और इसी प्रेम के कारण ही शृङ्गार रसराज कहलाया है। यह प्रेम सत्य, स्थायी, अत्यंत व्यापक तथा आकर्षक है। यही प्रेम दो हृदयों को एक कर देता है, इसी प्रेम के कारण संसार की सभी वस्तुओं का आदर होता है, और अंत में इसी प्रेम के सहारे जीव ईश्वर में लीन हो जाते हैं। शृंगाररस के देवता श्रीकृष्ण इस प्रेम के आधार हैं और इनके प्रति गोपियों तथा विशेषकर श्री राधिका जी का जो प्रेम है उसको लेकर जो कविता शुद्ध हृदय से भक्त कवियों द्वारा की गई है, वह अत्यंत पावन है या यों कहा जाय कि पतितपावन है। श्रीकृष्ण जी में शक्ति तथा शील के साथ सौंदर्य, प्रेम, ज्ञान आदि का भी पूर्ण विकास हुआ था। इनमें माधुर्य की अधिकता थी और यह वृन्दावन, गोकुला आदि में प्रजा के साथ साथ, घर घर भौर वन वन सुख तथा रह कर सवसे ऐसे मिल गए थे कि यह वहाँ सर्वप्रिय हो उठे थे । यही कारण था कि इनके मथुरा चले आने पर स्त्री, बालक, पुरुष का क्या कहना, गायें, पशु-पक्षी तक इनके लिये दुःखित हुए थे। मथुग में कंस को मारने पर स्वयं राज्य न लेकर मंत्री तथा सर्दार ही बने रहे। महाभारत से विध्वंसकारी महा- युद्ध में पांडवों को पार लगाने वाले होकर भी सारथी बने रहे। इसी युद्ध में ज्ञान, दया तथा शक्ति का अति उज्वल प्रभाव दिख-