पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५०

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प्रेम] ३४३ स्थान है लाया है। ऐसे ही नायक पर पूर्ण भक्ति रख कर की गई कविता का हिंदी साहित्य में विशेष एक हृदय दूसरे को देख कर प्रेम-बिद्ध हो गया है और वह सहृदया अपनी दशा अपनी एक सखी से कह रही है। यद्यपि वह उनके मन की गति' नहीं जानती, वह उसे प्यार करते हैं या नहीं, यह ज्ञात नहीं है तब भी वह निस्वार्थ रूप से उन पर प्रेम रखती है । एकांगी ही प्रेम हो या न हो पर वह प्रेम करने वाली उसका कुछ न ध्यान कर तन-मन-सर्वस्व उन पर निछावर कर रही है। उसके प्रत्येक अंग इस प्रेम से प्लावित हो रहे हैं, वह 'प्रेम-रस-मग्न' हो रही है। वह कहती है- सखी हम कहा करें कित जायें । बिनु देखे वह मोहिनि मूरति नैना नाहिं अघाय ॥१॥ कछु न सुहात धाम धन ग्रह सुख मात पिता परिवार । बसत एक हिय मैं उनकी छवि नैनन वही निहार ||२|| बैठत उटत सघन सोबत निसि चलत फिरत सब ठौर ।। नैनन में वह रूप रसीलो टरत न इक पल और ॥३॥ हमरे तो तन मन धन प्यारे मन बच क्रम चित माँहिं। पै उनके मन की गति, सजनी, जानि परत कछु नाहिं ॥४॥ सुमिरन वही, धान उनको ही, मुख मैं उनको नाम । दूजी और नाहिं गति मेरी, बिनु यि और न काम ||५|| नैना दरसन बिनु नित तलफँ, बैन सुनन को कान । बात करन को मुख तलफैं, गर मिलिबे को ये प्रान ॥६॥ ईश्वरोन्मुख प्रेम 'जो परम प्रेम अमृतपय एकांत भक्ति है, जिसके उदय होते ही अनेक प्रकार के प्राग्रह स्वरूप ज्ञान-विज्ञानादिक अंधकार