पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५२

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या ईश्वरोन्मुख प्रेम] की उपासना इस लाभ के लोभ से की जाने लगी कि वे प्रसन्न होकर अपने भक्तों को सब प्रकार से फायदा पहुँचावें । इस तरह देखा जाता है कि दो प्रकार के देवताओं की भावना की गई, जिनमें कुछ अनिष्ट कारक और कुछ इष्ट लाभदायक थे। यह भावना बहुत दिनों तक या यों कहिए कि अब तक बनी हुई है। मानव जाति में यह धारणा बहुत दिनों तक बनी रही कि देवगण पूजा पाने से प्रसन्न और न पाने से अप्रसन्न होते हैं तथा वे अपने पूजकों के सुकमों और कुकर्मों पर विचार नहीं करते । साथ ही इस प्रकार देवताओं की संख्या में वृद्धि होते होते यह भी भावना उठने लगी थी कि इन सबसे भी बड़ा, इन सब का मुखिया, कोई अध्यक्त अचित्यादि गुणों से विभूषित कोई परब्रह्म परमेश्वर भी होगा जिससे ये देवगण अपनी अपनी शक्ति पाते होंगे । यह निर्गुण भावना ज्ञानमार्ग की थी, जिसकी उपासना करना साधारण जनसमुदाय की शक्ति के बाहर था ! चे देखते थे कि मनुष्य की उत्पत्ति होती है, उसका पालन होता है और अंत में उसका नाश होता है। उस निर्गुण परब्रह्म को इन तीनों कार्यशक्तियों से युक्त समझकर उसके तीन सगुण रूपों की भावना की गई और उसका ध्यान स्रष्टा रूप में ब्रह्मा, पालक रूप में विष्णु तथा संहारक रूप में शिव नामकरण करके किया जाने लगा। उसी आदिम काल की भावना की प्रबलता ने भय के कारण शिव की तथा लाभार्थ विष्णु के उपासना की ओर जनसमुदाय को विशेष आकृष्ट किया था। समय के साथ साथ सामाजिक व्यवस्था मन्नत होती जा रही थी, ग्राम नगर बस रहे थे और विचारों के आदान प्रदान बढ़ रहे थे। समाज में एक ओर दुष्ट आततायियों की नृशंसता, अत्याचार आदि दृष्टिगोचर हो रहे थे तो दूसरी ओर ऐसे करों