पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५४

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ईश्वरोन्मुख प्रेम] अवश्यंभावी थी, इसी लिए आज तक कृष्णोपासकगण या तो बालगोपाल की या युगलमूर्ति की पूजा करते आए हैं । भारतेन्दु जी तदीय नामांकित अनन्यवीर वैष्णव थे और इनके यहाँ युगलमूर्ति की सेवा होती भाई थी। इन्होंने तदीय- सर्वस्व में श्री नारदीय सूत्र की व्याख्या करते हुए भक्ति का बहुत ही अच्छा प्रतिपादन किया है। इसके समर्पण में अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रति कह रहे हैं कि “जीवन का परम फल तुम्हारा अमृतमय प्रेम है, यदि वही नहीं तो फिर यह क्यों ? क्या संसार में कोई ऐसा है जिससे प्रेम करें । जो फूल भाज सुदर कोमल हैं और जो फल आज सुस्वादु हैं, पर कल न इनमें रंग है न रूप न स्वाद, सूखे गले मारे मारे फिरते हैं, भला उनसे अनुराग ही क्या ? प्रेम को तो हम चिरस्थायी किया चाहै यहाँ प्रेमपात्र ही स्थायी नहीं । तो चलो बस हो चुकी फिर इनसे प्रीति का फल हो क्या ? फल शब्द से आप कोई वांछा मत समझियेगा। प्रेम का यह सहज स्वभाव है कि वह प्रत्युत्तर चाहता है सो यहाँ दुर्लभ है । हमने माना कि ऐसे सत् लोग हैं जो प्रेम का प्रत्युत्तर दें, वह भी तो परिणाम दुःख स्वरूप ही है। 'संयोगास्त्वप्रयो- गान्ताः' कहा ही है। तो जिसके परिणाम में दुःख है वह वस्तु किस काम की। फिर उस दुःख में जीवन की कैसी बुरी दशा होगी। तो ऐसे प्रेम ही से क्या और जीवन ही से क्या ? इसी से न कहा है जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिर जहाज पर श्रावै। और जाय कहाँ । तो देखो संसार से वह कितना उदासीन है जिसको तुम्हारे प्रेम का लेश भी है । तो नाथ ! जो फिर उस उत्तम जीव को इसी संसार के पंक में फँसाओ तो कैसे बने । हमने माना कि हमारी करनी वैसी नहीं । हाय ! भला यह किसः मुँह से और कौन कह सकता है कि हम इसके योग्य हैं पर अपन.