पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५७

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रस्सा बनाओ, तब यह हायी दिगदिगंत भागने से रुकैगा। अर्थात् अब वह काल नहीं है कि हम लोग भिन्न भिन्न अपनी अपनी खिचड़ी अलग पकाया करें । अब महाघोर काल उपस्थित है। चारों ओर आग लगी हुई है । दरिद्रता के मारे देश जला जाता है। अँगरेजों से जो नौकरी बच जाती है उनपर मुसल्मान आदि विधर्मी भरती होते जाते हैं । आमदनी वाणिज्य की थी नहीं, केवल नौकरी की थी, सो भी धीरे धीरे खसकी । तो अब कैसे काम चलेगा। हिन्द नामधारी वेद से लेकर तंत्र वरंच भाषा प्रन्थ मानने वाले तक सब एक होकर अब अपना परम धर्म यह रक्खो कि आर्य जाति में एका हो । इसी में धर्म की रक्षा है। भीतर तुम्हारे चाहे जो भाव और जैसी 'उपासना हो ऊपर से सब आर्य मात्र एक रहो। धर्म संबंधी उपाधियों को छोड़कर प्रकृत धर्म की उन्नति करो।" देश-प्रेम जैसा लिखा जा चुका है, भारतेन्दु जी ने देश-काल-समाज के अनुसार पद्य साहित्य क्षेत्र को भी, केवल प्राचीन रूढ़िगत विषयों ही में संकुचित न रख कर, अनेक नए नए क्षेत्र जोड़कर अधिक विस्तृत किया था। इन सभी नए पुराने क्षेत्रों में देशभक्ति के रंग ही का प्राधान्य था। राजभक्ति, लोकहित, समाज-सेवा सभी में देशभक्ति व्याप्त थी या यों कहा जाय कि इनकी देश- भक्ति मूल थी तथा राजभक्ति, लोक-हित, मातृभाषा-हितचिंतन आदि उसी की शाखा-प्रशाखाएँ थीं। भारतेन्दु जी ने स्वदेश के “लिये तन मन धन सभी कुछ अर्पित कर दिया था और देश ही की चिंता में सदा व्यग्र रह कर इन्होंने अपना छोटा-सा जीवन बिता दिया था। 'भारतवर्ष के पुरावृत्त के प्रारम्भ काल से आज 1