पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५९

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तब घोर। ३५२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मोहत नर-नारि-बृन्द । सुनि मधुर बरन सज्जत सुरुंद ।। जग के सवहीं जन धारि स्वाद सुनते इनहीं को बीन नाद इनके गुन होतो सबहि चैन इनहीं कुल नारद तानसैन । इनहीं के क्रोध किये प्रकास । सब काँपत भूमंडल अकास॥ इनहीं के हुँकृति शब्द गिरि काँपत हे सुनि चार ओर । जब लेत रहे कर में कृगन । इनहीं कह हो जग तृन समान ॥ सुनि के रनगजन खेत माहि। इनहीं कह हो जिय सक नाहिं। 4म पंक्ति का 'कृष्ण बरन' कितने अर्थों से गर्भित है और कैसा क्षोभ-पूर्ण है । ये काले हैं, ऐसा कह कर आज हमें घृणा की दृष्टि से देखते हो। पर इन्हीं कृष्ण काय पुरुषों के दिग्विजय से पृथ्वी किसी समय थर्रा उठती थी, कपिल देव, बुद्ध अदि इस्सी वर्ण के थे और भास, कालिदास, माघ आदि कविगण भी काले कलूटे थे। इन लोगों के विजय-यात्रा-वर्णन, उपदेश तथा काव्या- मृत काले ही अक्षरों में लिखे जाते हैं, पर फल क्या ? आज हाय वहै भारत भुव भारी। सबही विधि सो भयो दुखारी॥ भारत का स्वातंत्र्य सूर्य पृथ्वीराज चौहान के साथ साथ प्रस्त हो गया और यह देश दूर देश से आए हुए यवनों से पादाक्रांत होकर परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ गया। सहतवीं तथा अठारहवीं -