पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६१

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३५४ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तुम में नहिं जल जमुना गंगा । बढ़हु बेग करि तरल तरंगा ।। धोबहु यह कलंक की रासी । बोरहु किन झर मथुरा कासी ।। कुस कन्नौज अंग अरु बंगहि । बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।। अहो भयानक भ्राता सागर । तुम तरंगनिधि अति बल-प्रागर ।। बढ़हु न बेगि धाइ क्यों भाई । देहु भरत भुव तुरत डुबाई । चरि छिपावहु विन्ध्य हिमालय । करहु सकल जल भीतर तुम लव ।। धोबहु भारत अपजस-पंका । मेटहु भारत भूमि कलका ।। अयोध्या, चित्तौर, पंचनद आदि नामों का केवल उल्लेख ही सच्चे देश भक्त के हृदय में किन किन भावों का प्रस्फुरण कर देता है, वह अकथनीय है। कहाँ रामराज्य का गर्व और कहाँ वर्तमान काल की उसकी कुदशा पर क्षोभ । इन थोड़ी सी पंक्तियों के एक एक शब्द में हमारे भारत की करुण कथा भरी है । गौरव काल के बाद अधोगति को प्राप्त न होना ही श्रेय है पर मनचाही मृत्यु भी नहीं मिलती, इसलिए पुनः कवि ईश्वर से अग्नी करुण गाथा कहकर स्वदेश के लिये मंगलकामना की इच्छा से प्रार्थना करता है। कहाँ करुनानिधि केसव सोए ! जागत नेक न नदपि बहुत बिधि भारतवासी रोए । इक दिन वह हो जब तुम छिन नहि भारतहित बिसराए । इतके पसु गज को भारत लखि श्रातुर प्यादे धाए ।। इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई । अपनी सम्पति जानि इनहि तुम गह्यो तुरन्तहि धाई । सम जौन सुदरसन असुर प्रानसंहारी। ताकी धार भई अब कुठित हमरी बेर मुरारी।। दुष्ट जवन बरबर तुव संतति. पास साग सम कार्ट एक-एक दिन सहस सहस नर सौस काटि भुष पाटें ।। प्रलय काल