पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६७

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. [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उसका प्रेमी भी उठावे । वह चाहे जीवन भर इस कष्ट को भोगे पर उसके प्रति कृष्ण भी प्रेम कर वैसा कष्ट क्षण भर भी न पावें। उसकी प्रेम-लालसा इच्छा रहित है। वह स्वयं आदर्श देखकर निरीह प्रेम का आदर्श हो रही है। यही प्रेम धन्य है, आदर्श है, दैवी है । 'यह तेरी चाल संसार ले निराली है। इसी 'से मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मंडल को पवित्र करने वाली है।' नहीं कह सकता कि किसी अन्य कवि ने प्रेम का ऐसा ऊँचा आदर्श दिखलाया है। कविश्रेष्ठ महात्मा तुलसीदास जी ने भी राम तथा सीता का विरह वर्णन किया है। सीता जी का हनुमान जी से पहिला प्रश्न यही होता है कि भगवान रामचन्द्र कभी मेरी याद करते हैं या नहीं? एक खंडिता नायिका पारसी ही को लेकर अपने पति को कैसी मीठी चुटकी देती है। वह कुछ उपालंभ नहीं देती, अपना विरह, दुर्भाग्य आदि सुनाकर अपने को नहीं कोसती और न सवति ही पर कुछ फफोले फोड़ती है । वह केवल यही कहती है कि 'देखिए यह हीरक जटित मीने के चित्रों से विचित्र दर्पण दिखलाने के लिये मैं रात्रि भर हाथ में लिए जागती रही । देखिए यहकैसी बनी है।' सहृदय प्रिय के लिये यह चुनौती बड़ी ही कठोर है, वह स्वयं आईना बन जाता है, वह किसे देखे ? देखिए- हौं तो तिहारे दिखाइबे के हित जागत ही रही नैन उजार सी। पार न राति पिया 'हरिचंद लिए कर भोर हौं हौं रही भार सी॥ है यह हीरन सों जड़ी रंगन तापै करी कछु चित्र चितार सी। देखो जू लालन कैसी बनी है नई यह सुन्दर कंचन पारसी ॥ नेत्र हिन्दी में नखशिख और उदू में सरापा लिखने की प्रथा ,