पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६८

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नेत्र] । ३६१ प्राचीन है। पर दोनों ही में वैसोस्वतंत्र कविताएँ कम है। सर्वांग पर उतनी कविताएँ नहीं मिलती जितनो विशेष विशेष अंगों पर मिलती हैं। इनमें भी नेत्र का स्थान बहुत ही ऊँचा है और क्यों न हो ? एक साधारण सूरदास का यह कहना है कि 'अँखिया हजार नियामत है।' बहुत ही ठीक है । सारी सृष्टि का दर्शन इची से होता है। काव्य जगत के रसराज का अाधार प्रेम का अंकुरण इन्हीं आँखों द्वारा ही होता है । आँखों ने जिसे अपनाया उसी के हाथ मन ही नहीं मारा शरीर 'विकान'। साथ ही वे नैना औरै कछु जेहि बस हात सुजान ।' (बिहारी) आँखें तो सभी को होती हैं, अनेक प्रकार की होती हैं, पर विशेषता उसी में कुछ है जिसमें आकर्षिणी शक्ति हो, जादू हो। एक बेर नैन भरि देखै जाहि मोहै तौन माच्यौ ब्रज गाँव ठाँव ठाँव में कहर है। और अंत में कहना ही पड़ा कि, यामें न सँदेह कछू दैया हौं पुकारे कहौं भैया को सौं मैया री कन्हैया जादूगर है। और यदि तरफैन की, दोनों ओर की, वैसी ही आँखें हुई तब वे 'का करौ गोइयाँ अहमि गई अँखियाँ' का दृश्य हो जाता है और सुलझाना बेकार हो जाता है। होत सखि ये उलझौं हैं नैन । उरमि परत सुरझ्यौ नहिं जानत सोचत समुमत हैं न । कोऊ नहीं बरजै जो इनको बनत मत्त जिमि मैन । कहा कहौं इन बैरिन पाछे होत लैन को दैन । सत्य ही बरजै कौन और सुने कौन ? इनके व्यवहार में विवेक की भी कमी है। सोचना, समझना ये आलसियों का काम