पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७०

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हाय, . . ३६४ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बिना प्रानप्पारे भए दरस तिहारे देखि लीजौ आँखें ये खुली ही रहि जायँगी॥ समवेदना ही नहीं करके रह जाता प्रत्युत् उनकी ओर से प्रार्थना भी करता है कि- पिया प्यारे तिहारे निहारे बिना अँखिया दुखिया नहि मानती है। यदि कोई कहे कि संसार में सौंदर्य की कमी नहीं है, कुछ और देखो, तब इन आँखों की ओर से कवि कहता है कि- बिछरे पिय के जग सूनो भयो, अव का करिए कहि पेखिये का। सुख छाँहि के संगम को तुम्हरे. इन तुच्छन को अब लेखिए का । 'हरिचंद जू' हीरन को व्यवहार कै काँचन को लै परेखिए का। जिन आँखिन में तुव रूप बस्यो, उन आँखिन सों अब देखिए का ॥ आँसू जिन नेत्रों के परस्पर मिलने से प्रेम की मूलोत्पत्ति होती है, उन्हीं से उत्पन्न जल से उस प्रेमवल्लि को 'अँसुअन जल सींचि सींचि' भक्त मीरा ने लहलहाया था । प्रेम की विरह दशा के अश्रुकण आँखों से निकलने वाले हैं। नेत्र दर्शन न पाने से अत्यन्त दुखी हो रहे हैं, उनका धैर्य छूटा जा रहा है, अतः कवि उनकी ओर से कहता है कि- सदा न्याकुल ही रहैं आपु बिना इनकों हू कछू कहि जाइए तो। इक बारहु तोहि न देख्यौ कभू तिनको मुखचन्द दिखाइए तो ।। 'हरिचन्द जू' ये अँखियाँ नित की है बियोगी इन्हें समुझाइए तो । दुखियान को प्रीतम प्यारे कबौं बहराइ के धोर घराइए तो ।। पर ये नेत्र बिना दर्शन पाए भला बहलाने से मानते हैं। इन की दशा बिगड़ जाती है और अश्रु उमड़ पड़ते हैं । यह विरह- व्याधि साधारण नहीं है, इसे दूर करने का उपाय धन्वन्तरि भी