पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७३

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भारतेन्दु जो का विरह वर्णन ] मेंप मिटाने का और उपाय ही क्या था। हाँ खोजने के लिये विस्तर माड़ने का हुक्म हुआ, मानों आशिक पिस्सू बन कर उसके नीचे दबक गया था। दूसरे साहब की बात ही निराली है । पहिले तो यही ज्ञात होता है कि बेचारे इस हिज्र से बड़े प्रसन्न हैं कि उसने इन्हें ऐसा कर दिया है कि मौत भी उन्हें ढूंढ़ कर न पा सकी और उनकी जान बच गई। यदि हिज्र न होता तो स्यात् उनकी मुटाई से कजा को अधिक परिश्रम न करना पड़ता और 'मैं न था' सत्य हो जाता। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि बिहारी की विरहिणी परमाणुता को पहुँची थी। वह भी गलपच कर ऐसी बेमालूम हो गई थी कि मीच (मृत्यु) चश्मा लगाकर भी उसे नहीं देख म्रकती थी। यद्यपि विरहिणी सामने से हटती नहीं थी पर वह स्यात् मृत्यु चाहने में कुछ आगा पीछा कर रही थी, नहीं तो झट मृत्यु से कह कर ऐसे विरह-कृष्ट से छुटकारा पा जाती। दोहा इस प्रकार है- करी विरह ऐसी तऊ गैल न छाँड्तु नीच । दीने हू चसमा चखनि चाहै लखै न मीच ॥ इसके सिवा विरहिणी की विरहाग्नि उसी तक नहीं रह जाती, उसके पास आने वाली सखी झुलसने लगती है, गुलाब का कंटर सूख जाता है, सीसी पिघल जाती है, पिसा अरगजा सूख कर अबीर हो जाता है इत्यादि । अग्नि और बड़ती है, गाँव का गाँव ही गर्मी से तड़फड़ाने लगता है, जाड़े में ग्रीष्म से बढ़कर तपन हो जाती है। अति हो गई, खसखाने में विरहिणी अपनी । धन्य है अतिशयोक्ति, जो न तु संभव कर दे । चुहल बाज इन्शा ने ऐसी ही विरहिणी के आह को भाड़ कहा है। .