पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७४

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- ३६८ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जो दानेहाय अंजुमे गेहूँ को डाले भून । उस श्राह शोलाखेज़ को इंशा तू भाड़ बाँध ।। बिरहाग्नि से गाँव की नदी ऐसी खौल उठी कि समुद्र तक पहुँच उसे गरम कर डाला और बड़बाग्नि को जलाने लगी। जायसी ने भी ऐसी ही कुछ अंट संट बातें कही हैं । विरही के लिखे पत्र के अक्षर अँगारे हो रहे थे, जिससे कागज के न जलने पर भी उसे कोई छूता न था, तब सुगा उसे ले चला । अन्य स्थान पर कहते हैं कि विरह कथा जिस पक्षी से वह कहता था उस के पक्ष सुनते ही जल जाते थे । मालूम होता है कि यह सुग्गा भी काग़ज़ की तरह किसी विरह-साबर मंत्र से सुरक्षित किया गया था। इस प्रकार के ऊहात्मक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनों के आधार असत्य हैं, जिन्हें सुनने से विरही-बिरहिणी के असीम दुःखों के अतिशयाधिक्य का अन्दाजा शायद कुछ लोगों को लगता हो पर श्रोतागण उनसे समवेदना करने के बदले इन बातों की करामात में फँस जाते हैं और उनकी तीव्र वेदना से उत्पन्न तपन की जो जोख ( नाप ) बतलाई जा रही है, उसके विचार में लग जाते है तात्पर्य इतना ही है कि ऐसे वर्णन के श्रोता या पाठक की दृष्टि, जिसके प्रति कवि को उनकी समवेदना उत्पन्न करानी थी उन पर न रह कर, उनके अत्युक्ति पूर्ण भसंभाव्य बातों के घटा- टोप में बन्द हो जाती है। यदि यही अत्युक्तियाँ संभाव्य हों, ऐसे वर्णनों का आधार सत्य और स्वाभाविक हो तो पाठकों के हृदय में उनके चित्र तुरन्त खचित हो जायँगे और बिरह विरहिणी के प्रति उनकी समवेदना तुरन्त आकृष्ट हो जायगी। 'आह रूपी नागिन ने उड़कर आकाश को काट लिया जिससे वह नीला हो गया, ऐसे वर्णन में आधार आकाश का नीला होना सत्य है पर