पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७६

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सबल तथा राधा गोपी आदि सी अवलाओं की समता क्यों की गई ? क्या ये अबलाए रणचंडी बन कर मथुरा या लाखों 'चार दम दूर द्वारिका पर चढ़ जाती और कृष्ण को पकड़ लाती। मान-विरह तो चार क़दम क्या एक क़दम की दूरी भी न रहने पर हो सकता है। जब रावण के समान कोई नृशंस पुरुष किसी की प्रणयी उड़ा ले जाय तभी न वह विरही होते भी वीर पुरुष समान उखस अपने प्रणयी को छीन लाने का प्रयत्न करेगा जब दो प्रेमी बन्यप्रदेश में घूमते फिरते किसी प्रकार एक दूसरे से रुष्ट होने के कारण अलग हो गए उस समय, प्रेमी चाहे माड़ी में छिपा तमाशा देख रहा हो, प्रणयिनी अवला अवश्य ही मान, रोष, विरह-दुःखादि के कारण रो बैठेगी। इसमें रत्ती भर भी अस्वाभाविकता नहीं है। कुछ समालोचक जब एक कवि की आलोचना करते रहते हैं तो अन्य कवियों पर कुछ फतियाँ कसते जाते हैं, ऐसी एक प्रथा सी हो गई है। करुण विप्रलंभ नायक तथा नायिका दो में से एक के मरण पश्चात् दुसरे के शोक को कहा जा सकता है पर उसी अवस्था तक यह करुण -विप्रलंभ रहेगा जब इस बात की उसे पाशा होती है कि वह पुनर्जीवित हो उठेगा । सत्यवान की मृत्यु पर सावित्री का रुदन इसी प्रकार का था, क्योंकि उसे दृढ़ आशा थी कि उसका पति पुनः जी उठेगा। यदि जी उठने की आशा हो न रहे तो करुण विप्रलंभ न रह कर करुण रस हो जायगा। श्री चन्द्रावली नाटिका हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य निधि है और इसकी सारी विशेषता केवल एकमात्र शब्द प्रेम में भरी पड़ी है । इसमें का विरह-वर्णन इतना स्वाभाविक, इतना हृदय- ग्राही भौर समवेदना-उत्पादक है कि इसके पाठक या श्रोतागण इसे पढ़ सुन तन्मय हो जाते हैं। इस समग्र नाटक म शृङ्गार रस