पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७७

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भारतेन्दु जो का विरह वर्णन ] का वियोग पक्ष ही प्रधान है, केवल अन्त में मिलन होता है। 'प्रेमियों के मंडल को पवित्र करनेवालो' चन्द्रावलो में श्रीकृष्ण के बाल-सुलभ चपलता, सौंदर्य तथा गुण सुनने से पूर्वानुराग उत्पन्न होता है। आसपास के गाँव में रहने से देखा देखी भी होती है और वह प्रेम रूप में परिणत हो जाता है । वह सुन्दर रूप विलोकि सखो, मन हाथ ते मेरे भग्यो सो भग्यो । इस प्रकार मन के भाग जाने से अनमना हुई किसी नायिका का कवि यों वर्णन करता है- भूली सी भ्रमो सी चौंकी जको सी थकी सी गोगो , दुखी सी रहत कछू नाहीं सुघि देह की। मोही सो लुभाई कछु मादक सी खाए सदा , बिसरी सी रहै न गेह की । रिस भरी रहै कबौं फूलि न समाति अंग , हँसि हँसि को बात अधिक उमेह की। पूछे ते निसानी होय उत्तर न आवै तोहि , जानी हम जानी है निसानी या सनेह की ॥ इस प्रकार प्रेम का आधिक्य हो जाने पर उसे छिपाना कठिन हो जाता है । सखियाँ प्रश्न करती हैं, हठ करती हैं तब बतलाना पड़ता है। विरह कष्ट के विशेष रूप से प्रकट न मालूम होने से जब शंका होती है तब उत्तर मिलता है कि- मनमोहन ते बिछरी जब सों तन श्रासुन सो सदा धोवती हैं। 'हरि चंद ज' प्रेम के फंद परी कुल की कुल ला जहि खोवती हैं । दुख के दिन को कोऊ भाँति बितै बिरहागम रैन सँजोवती हैं। हमहीं अपनी दशा जानै सखी निसि सोवती हैं किधौं रोवती हैं । सत्य ही दूसरे का दुःख कौन समझ सकता है। कष्ट के दिन नेक खबर