पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७८

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३७२ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तो किसी प्रकार बीत भी जाते हैं पर रात्रि कैसे व्यतीत होती है यह दुखिया ही समझ सकती है । इस पद का पूर्वानुराग नीली राग ही कहलाएगा यद्यपि आगे चलकर चंद्रावली जी का यह अनुराग मंजिष्ठा राग में परिवर्तित हो गया है। किस प्रकार यह अनुराग बढ़ा है, इसके कथन के साथ साथ इस पद में विरह की प्रथम तीन दशाएँ-अभिलाषा, चिंता तथा स्मृति-भी लक्षित हो रही हैं। पहिले मुसुकाइ लजाइ कछू क्यों चितै मुरि मो तन छाम कियो पुनि नैन लगाइ बढ़ाह के प्रीति निचाहन को क्यौं कल.म कियो । 'हरिचन्द' भए निरमोही इते निज नेह को यों परिनाम कियो । मन माँहि जो तोरन ही की हुतो अपनाइ के क्यों बदनाम कियो ।। विरह से उद्वेग बढ़ा, उन्माद के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे और जड़ तथा चेतन का भेद न रह गया । 'राजा चन्द्रभानु की बेटी चन्द्रावली' पक्षियों पर बिगड़ उठती है, कहती है-'क्यों रे मोरो, इस समय नहीं बोलते ? नहीं तो रात को बोल बोल के प्राण खाए जाते थे। कहो न वह कहां छिपा है ? ( गाती है) अहो अहो बन के रूख कहूँ देख्यो पिय प्यारो । मेरो हाथ छडार कहो वह कितै सिधारो ।। अहो कदंब अहो अंब-निव अहो बकुल तमाला । तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुन्दर नंदलाला ।। अहो कुंज बन लता विरुध तृन पूछत तोसो । तुम देखे कहूँ श्याम मनोहर कहहु न मोसो ॥ अहोजमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि तुम देखे कहुँ प्रान पियारे मन मोहन हरि ॥ कैसी उन्मत्त दशा है, ये पेड़ पक्षी भी अपने साथ सहानुभूति दिखलाते हुए शात होते हैं पर बेचारों का कुछ वश चलता नहीं।