पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७९

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- . भारतेन्दु जी का विरह वणन] ३७३ विरहिणी उनसे बड़े दुलार के साथ, आदर के साथ पूछती है पर वे निरुत्तर हैं। उन्मादिनी के कान में किसी ने वर्षा का शब्द पहुँचा दिया वस वह अपने घनश्याम आनन्दधन का स्वप्न देखने लगी। वह कहती है- बलि साँवली सूरत मोहनी मूरत श्रॉखिन को कबौं श्राइ दिखाइए। चातक सी मरें प्यासी परीं इ, पानिर रूप सुधा करें प्याइए । पीत पटै बिजुरी से कौँ हरिचन्द जु' धाइ इतै चमकाहए। इतहू कबौं श्राइकै शानद के घन नेइ को मेह पिया बरसाइए ॥ सच्चे प्रेमी चातक हा के स्वरूप हैं, उनको प्यास. हृदय तृष्णा, उन्हीं के प्रेमपात्र के मिलने से तृम होती है, उससे हजार गुणा बढ़कर सौंदर्यादि गुणों से युक्त पात्र को देखने से नहीं होती। ऐसी विहिणी को दिन होता है तो शोक, संध्या होती है तब भी शोक। । चन्द्र की सुधामयी किरणें तथा सूर्य की उत्तप्त रश्मियाँ उनके लिए समान है । चन्द्रोदय होने पर पहिले उसमें वह अपने प्रिय --गोप कुल-कुमुद निसा कर उदै भयो" मानती है और जब वह भ्रांति मिटती है तब उसे सूर्य धमझ कहती है- निसि प्राजहू की गई हाय बिहाय पिया बिनु कैसे न जीव गयो । हत मागिनी आँखिन को नित के दुख देखिबे को फिर भोर भयो । जब चन्द्रमा बादल के आ जाने से छिप जाता है तब एका- एक उसे रात्रि का पता चलता है। वह घबड़ाकर कहती है- 'प्यारे देखो, जो जो तुम्हारे मिलने में सुहावने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गए । हा ! जो बन आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था वही अव कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। देखो सब कुछ है, एक तुम्ही नहीं हो। विरह दशा में यदि सहायक मिल जायँ तो अवश्य ही विरह कष्ट कुछ कम हो जाता है, पाशा बड़ी बलवती होती है पर इस