पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८

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पूर्वज-गण २५ और अपना अपराध क्षमा करा कर पुनः उनके स्नेह के पात्र हुए । इसी मिलन के अनंतर ही वह वसीअतनामा लिखा गया होगा। इन तर्को से ज्ञात होता है कि बा० फतेहचंद की मृत्यु सन् १८१० या उससे दो एक वर्ष पहिले हुई होगी। वे काशी में लेन-देन का व्यवहार करते थे पूर्वोक्त बातों के समर्थन के लिये ही एक काग़ज़ का नीचे विवरण दिया जाता है जो सन् १८१८ ई० का एक फैसलनामा है । यह सदर अदालत दीवानी का फैसला है जहाँ मुनसिफ़ की डिंगरी पर अपील की गई थी। राय रत्नचंद्र के पुत्र रायचंद के बजड़े पर नियुक्त एक नौकर निहाल मल्लाह ने नवंबर ४, सन् १८१६ ई० को राय रत्नचन्द्र पर बाकी वेतन का दावा किया, जो सं० १८७२ के अगहन से सं० १८७३ के कार्तिक मास तक का बाक़ी था। ४ जुलाई सन् १८१७ ई० को डिगरी हुई और अपील का फ़ैसला ७ जनवरी सन् १८१८ को दिया गया। दावा में दिखलाया गया है कि रायचंद की मृत्यु तक वेतन उन्हीं से बराबर मिलता रहा था । और उनके मरने ही पर यह रुका भी था। इससे रायचंद की मृत्यु का सं० १८७२ के अगहन ही में होना निश्चित है। राय रत्नचंद्र पुत्रशोक तथा भ्रातृ-पुत्र के झगड़े के कारण स्यात् वेतन आदि न दे सके होंगे। गवाहों ने यह भी दिखलाया है कि वेतन का देना कोठी बा० फतेहचंद ही पर लाजिम है, इससे यही ध्वनि निकलती है कि झगड़े के अनन्तर बा० हर्षचंद ने अपने पितृव्य से अपील की डिगरी तक क्षमा प्राप्त कर ली हो। इस फैसले में भी अर्थात् सन् सन् १८१८ ई० में बाबू हर्षचंद का अल्पवयस्क होना लिखा गया है । इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता इन्हें बहुत छोटा ही छोड़ कर मरे थे। बाबू फतेहचंद के यह एकमात्र पुत्र थे। यद्यपि काशी में