पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८०

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३७४. [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दशा में निरवलंबता ही अधिक मालूम होती है और इसी से यह कष्ट कर होती है। विरहिणी कहती है--अरे मेरे नित के साथियो, कुछ तो सहाय करो। अरे ! पौन, सुख-भौन सबै थल गौन तुम्हारो। क्यौं न कहौ राधिका-रौन सो मौन निवारो। अहो ! भँवर, तुम श्याम रंग मोहन-व्रतधारी । क्यौं न कहौ वा निठुर श्याम सों दसा हमारी ।। अहो ! हंस, तुम राजबंस सरवर की सोभा । क्यौं न कहौ मेरे मानस सों दुख के गोभा !! विरह में सुखद वस्तु भी दुःखद प्रतीत होती हैं । श्याम धन को देख घनश्याम की, इन्द्रधनुष तथा बगमाल देखकर श्री कृष्ण की वनमाला और मोतीमाला की, मोर पिक आदि के शब्द सुनकर वंशीनाद करने वाले की छषि की और 'देखि देखि दामिनि की दुगुन दमक पीतपट छोर मेरे हिय फहरि फहरि . यह दुःख अनुपम है, और सब दुःख दवा करने, मांत्वना देने, धैर्य धराने से कुछ कम ज्ञात होते हैं, पर यह इन सबसे और बढ़ता है। एक ऐसी ही विरहिणी का वर्णन कितना स्वाभाविक हुआ है कि सुनने वाले का मन बरबस उसके प्रति सहानुभूति पूर्ण होकर उमड़ पड़ता है- छरी सी छकी सी जड़ भई मी जकी सी घर , हरी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै । बोले ते न बोलै हग खोलै ना हिंडोले बैठि , एकटक देखे सो खिलौना सी धरी रहै। 'हरीचन्द' औरौ घबरात समुझाएँ हाय हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै।