पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भारतेन्दु जो का विरह-वर्णन ] याद पाएँ सखिन रोवावै दुख कहे कहि , तो लौं सुख पावै जौ लौ मुरछि परी रहै । वह तभी तक कुछ पाराम पाती है जब तक अपने होश में वह नहीं रहती। यही जड़ता नवीं काम दशा है। विरहा-विर- हिणी प्राय: अपना दुःख दूसरे स्त्री-पुरुष से नहीं कहते और कहते भी हैं तो जड़-पदार्थों से कह कर अपने जी का बोम हलका करते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं, यह कवि ने एक पद में इस प्रकार कहलाया है- मन को कासा पीर सुनाऊँ। बकनों बृथा और पत खोनो सबै चबाई गाऊँ ।। कठिन दरद कोऊ नहिं हरि धरिहे उलटो नाऊ। यह तो जो जानै सोइ जानै क्यो करि प्रगट जनाऊँ। रोम रोम प्रति नैन श्रवन मन केहि धुनि रूप लखाऊँ । बिना सुजान-सिरोमनि री केहि हियरो काढ़ि दिखाऊँ ।। मरमिन सखिन वियोग दुखिन क्यो कहि निज दसा रोपाऊँ । 'इरीचंद पिय मिले तो पग धरि गहि पटुका समुझाऊँ । विरह प्रलाप भी विचित्र होते हैं । एक बियोगिनी इस दुःख से घबरा कर बूढ़े ब्रह्मा को दोष दे रही है कि क्या संसार भर में यही ब्रजमंडल मुझे जन्म देने के लिये बच रहा था और यदि जन्म दिया भी तो न मालूम किस बैर से उसने हमारा सब सुख ठगकर हमें दुख देने ही को जिला रखा है- बृजबासी बियोगिन के घर मैं जग छाँहि कै क्यों जनमाई हमैं । मिलिचो बड़ी दूर रह्या 'हरिचद' दई इक नाम धराई हमैं ।। जग के सगरे सुख सो ठगि कै सहिबे को यही है जिवाई हमैं । केहि बैरसों हाय दई विधिना दुख देखिबे हो को बनाई मैं । मान प्रणय तथा ईर्ष्या दोनों ही से होता है और इसलिए