पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८२

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३७६ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसका इस प्रकार दो भेद माना गया है। प्रणय मान का एक उदाहरण लीजिए- पिय रूसिबे लायक हेय जो रूसनो वाही सो चाहिए मान किये। 'हरिचन्द' तो दास सदा बिन मोल को बोलै सदा रुख तेरो लिये रहे तेरे सुखी मों सुखी नित ही मुख तेरो ही प्यारी विजोकि जिये। इतने हूँ पै जानै न कों तू रहै सदा पीय सों भौंह तनेनी किये। इसमें पति का पत्नी के प्रति पच्चा प्रेम है और उसने कोई ऐसा कार्य नहीं किया है जिससे प्रेमिका को मान करने का अव- सर मिले पर वह स्यात् प्रणयाधिक्य से मान की माध पूरी करने के लिये भी इ-तनेनी किए' रहती है। ईर्ष्या से उत्पन्न मान होने पर उस मानवती को विरह कष्ट विशेष रूप से होता है । कार्यवश, शाप या भयवश प्रिय का प्रवास हो जाने पर प्रेमी-प्रेमिका को जो विरह कष्ट होता है उसकी प्रतीति पूर्वानुराग तथा मान के विरह कष्ट से अधिक तीव्र होती है। इसी से प्रवासोचत नायक से प्रेमिका कहती है- करिकै अकेली मोहिं जात प्राननाथ अब, कौन जानै श्राय कब फेर दुख हरिहौ । औध को न काम कछु प्यारे धनश्याम, बिना पाप के न जी हैं हम जो इतै धरिहा ।। 'हरिचन्द' साय नाथ लेन मैं न मोहिं कहा, लाभ निज जी मैं बतायो तो बिचारही देह संग लेते तो टहलहू करत जातो, एहो प्रानप्यारे प्रान लाह कहा करिहो ।। कैसी सुन्दर व्यंजना है। विरह में वह जीवित रहेगी ही नहीं और इसलिये उसके प्राण निकल कर साथ ही चले जायेंगे। ऐसी अवस्था में केवल प्राणरूपी साथी को साथ ले जाने से उसे