पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८४

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३७८ 11 [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जा दिन लाल बजावत बेनु अचानक आय कढ़े मम द्वारे हौं रही गढ़ी अटा अपने लखि कै हँसे मो तन नन्ददुलारे ।। लाजि कै भाजि गई 'हरिचन्द' हौं भौन के भीतर भीति के मारे । ताही दिना तें बवाहन हूँ मिलि हाय चवाय के चौचंद पारे ।। इस प्रकार नन्द दुलारे को पहिली बार एकाएक देखकर बेचारी डर कर घर के भीतर भाग गई, पर जिस के डर से भागी वे चवा- इनें कव पीछा छोड़ती हैं। उनके लिए उतना ही बहुत था, उन्होंने चौपाई बहा दी। इन चवाइनों की तारीफ सुनिए- ब्रज मैं अब कौन कला बसिए बिनु बात हो चौगुनों चाव करें अपराध बिना 'हरिचन्द जू' हाय चवाइनैं घात कुदाव करै पौन मों गौन करे ही लरी परे हाय बड़ोई हियाव करें जो सपने हूँ मिले नन्दलाल तौ सौतुख मैं ये चबाव करें। प्रेमाधिक्य में वे इन चवाइनों की उपेक्षा कर जाती हैं. वे ज्यो ज्यों इन्हें बदनाम करती हैं, त्यो त्यों वे अपना प्रेम बढ़ाती जाती हैं और इनकी ओर ध्यान भी नहीं देती। बृनके सब नाँघ धरै मिलि ज्यौं जौं चढ़ाई कै त्यो दोउ चाय करें 'हरिचन्द' ह मैं जितनो सब ही तितनो दृढ़ दोऊ निभाव करें । सुनि कै चहुँघा चरचा रिसि सों परतच्छ ये प्रेम प्रभाव करें। इत दोऊ निसंक मिलैं बिहरै उत चौगुनो लोग चबाव करें ।। उनकी ढिठाई और बढ़ती है, प्रेम उन्हें परले दर्जे का बेहया बना देता है, वे इन चवाइनों से बेतरह चिढ़ जाती हैं और उन्हें ललकार कर कहती हैं- मिलि गाँव के नांव धरौ सबही चहुँघा लखि चौगुनो चाव करौ । सब भौति हमैं बदनाम करौ कदि कोटिन कोटि कुदाव 'हरिचन्द जु' जीवन को फल पाय चुकीं अब लाख उहाव करो । हम सोवत हैं पिय अंक निसंक चबाइने आश्रो चबाव कौ।।