पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८५

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संयोग शृङ्गार] ३७६. उद्दीपन रूप में वर्षा ऋतु जिस प्रकार वियोग में दुःखदायी होती है उसी प्रकार संयोग में वह रति की उद्दीपक हो उठती है, उसके बादलों के घिर जाने, ठंढी हवा चलने, दादुर की बोल, मयूर का नृत्य, हरे हरे खुले पत्तों का हिलना तथा कदम्ब पर कोयलों का कूकना संयोगियों के हृदय को गुदगुदाने लगता है। कूकै लगी कोइलैं कदम्बन पै बैठि फेरि धोए धोए पात हिल हिल सरसै बगेग बोलै लगे दादुर मयूर लगे ना चै फेरि देखि कै संयोगी जन हिय हरसै लगे । हरी मई भूमि सीरी पवन चलन लागी लखि 'हरिचन्द' फेर पान तरसै लगे। फरि भूमि झूमि बरषा की ऋतु आई फेरि बादर निगोरे झुकिझुकि बरसै लगे। चन्द्रावली नाटिका में विप्रजभ शृङ्गार ही की प्रधानता है और उसका उल्लेख भी हो चुका है। चन्द्रावली जी की सखियों के परिश्रम से जब श्रीकृष्ण भगवान जोगिन का रूप धारण कर उससे मिलने आए और बिरहोन्माद में गाते गाते बेसुध हुई चन्द्रावली को अपने अंक में लपटा लिया था, उस समय विरह का उन्माद हर्ष के उन्माद में परिणत हो गया। वह पागल के समान श्रीकृष्ण के गले में लिपट कर कहती हैं- पिय तोहि राखौंगी भुजन मैं बौधि । जान न दैहौँ तोहि पियारे धरौंगी हिए खो नाँघि ॥ बाहर गर लगाइ राखौंगी अन्तर कनेंगी समाधि । हरीचन्द' छूटन नहिं पैहौ लाल चतुरई साधि ।। वह घबड़ाकर कहती है, सोचती है कि अब पिय को ऐसी कौन जगह छिपा लूँ कि वह कहीं भाग ही न जा सके । आँखों की पुतली में रख लें या हृदय के भीतर रखें, यह उसे समझाई ही नहीं देता। तब वह प्रिय से प्रार्थना करती है कि तुम्ही अब हमें छोड़ कर मत जाओ और जहाँ चाहो हमारे हृदय या आँखों में - ,