पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८६

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र निवास करो। यहाँ तक क्षणमात्र के लिए भी हमारी माँखों से न हो। अंत में वह कहती है- ग्यि तोहि कैसे बस करि गखौं ? तुव दृग मैं तुव हिय मैं निज हियरो केहि बिधि नाखौं॥ कहा करौं का जतन बिचारौं बिनती केहि बिधि भाखौं । 'हरीचन्द' प्यासी जनमन की अधर सुधा किमि चाखौं । इस सव हर्षोन्माद में किलकिंचित हाव पूर्णतया विकसित हो गया है। इसमें विहृत हाव भी मिला है क्योंकि आगे श्री चन्द्रावली जी कहती हैं कि 'जब कभी पाऊँगी तो यह पलूंगी वह पूछू गी पर आज सामने कुछ नहीं पूछा जाता ।' नायिकाओं के अट्ठाईस सात्विक अलंकार कहे गए हैं, जिनमें भाव, हाव और हेला अंगज कहलाते हैं। शोभा, कांति, दोप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य और धैये प्रयत्न ज इस कारण कहे जाते हैं कि ये आपसे-आप उत्पन्न होते हैं। लोला, विलास, विच्छिति, विव्वोक, किलकिंचित, विभ्रम, ललित, मद, विहृत, तपन, मौग्ध्य, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि ये यत्नज अर्थात् साध्य हैं। भाव तो वही है जो प्रत्येक प्राणी में स्थायी रूप से होते हुए भी अवस्था या अवसर प्राप्त होने पर उबुद्ध हो जाता है। शृङ्गार रस में यह भाव रति है। यह काम जब विकार नेत्र चालनादि से व्यक्त हो जाता है तब उसे हाव कहते हैं । जब यह व्यंजना अधिक स्पष्ट हो जाती है तब हेला कहलाती है। सिसुताई प्रौं न गई तन ते तऊ जोवन जोति बटोरै लगी। सुनि कै चरचा 'हरिचन्द' की कान कछूक दै भौंह मरोरै लगी। बचि सासु जेठानिन सों पिय ते दुरि घूघट में दृग जोरै लगी। दुलही उलही सब अंगन तें दिन द्वै तें पियूष निनोरै लगी ॥ इस छन्द में नायिका में यौवन का आगम हो चला है, रति.