पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८८

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३८२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कितना सहज स्वाभाविक वर्णन है और वैसी ही सरल भाषा भी है। प्रीतम से मिलने के लिए जानेवाली नायिका को अभिसार करना कहते हैं। एक नायिका ने इस प्रकार के बहुत प्रयास किए पर उसे दर्शन के लाले ही पड़े रहे। वह कहती है- काले परे कोस चलि चलि थक गए पाँय सुख के कसाले परे ताले परे नसके। रोय-रोय नैनन में हाले परे जाले परे मदन के पाले परे प्रान पर बस के । 'हरीचन्द' अंगहू हवाले परे रोगन के सोगन के भाले परे तन बल खसके वगन में छाले परे नाँधिबे को नाले परे तऊ लाल लाले परे रावरे-दरस के। चलते चलते उसके पैर ऐसे थक गए कि मानों उनमें ताले पड़ गए । महाविरा है कि बहुत थक जाने पर जब कोई चल नहीं सकता तव कहता है कि पैरों में ताला पड़ गया है। वास्तव में नसों के अकर्मण्य हो जाने पर पैर आगे नहीं पड़ते तभी ऐसा कहा जाता है, इसीलिए कवि ने नस के ताले कहा है। नेत्रों की रोते रोते बुरी दशा है, शरीर भी रोगों तथा शोक के भालों से जर्जरित हो गया है। सुकुमार स्त्रियों के लिए न करने योग्य नाले तक लाँघने पड़े तब भी शबरे इरस के लाले परे' ही रहे। महाविरों की अच्छी छटा है।। खंडिता नायिका उसे कहते हैं जिसका पति रात्रि भर कहीं अन्य के यहाँ व्यतीत कर सुबह लौट भावे। निम्नलिखित पद ऐसी ही एक नायिका की उक्ति है जो क्रोध को विलकुल हृदयस्थ करके पति का उसी प्रकार स्वागत कर रही है, जिस प्रकार दिन भर के भूले-भटके का संध्या को घर पहुँचने पर होता है। यह नायिका प्रौढ़ा धीरा है। वह पति के इस प्रकार लौटने पर अस्ना सौभाग्य सराह रही है कि आज सबेरे ही उनके दर्शन हो गए। सबसे बढ़ कर व्यग्य वह यह करती है कि भला हमें भूले तो नहीं यहो सब कुछ है । सुनिए वह कहती है-