पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८९

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संयोग शृङ्गार] ३८३ श्राजु मेरे भोरहि जागे भाग! प्राये पिया तिया रस भीने खनत दृग जुग फाग ॥ भलौ हमैं भूले तौ नाहों राख्यौ जिय अनुराग । साँझ भोर एक ही हमारे तुव श्रावन को लाग ।। मङ्गल भयो भोर मुख निरखत मिटे सकल निसि-दाग। 'हरीचन्द' श्राओ गर लागो साँचो करौ सोहाग ।। कितनी मधुर तथा सरल चुटकियाँ हैं जो हृदय तिलमिला डालती हैं। ऐसे व्यंग्य बाणों को पूरा 'शठ या धृष्ट' नायक ही सहन कर सकता है। हिन्दी-साहित्य में भारतेन्द जी का स्थान जो कुछ आलोचना लिखी गई है, वह अनेक भावों से भावित तथा अनेक विषयों पर लिखित शताधिक रचना मों के लिए पर्याप्त नहीं है और इसके लिए एक से अधिक विद्वानों को लेखनी उठानी पड़ेगी। इतने पर भी जो कुछ लिखा गया है उससे इनकी विशेषताओं का बहुत कुछ स्पष्टीकरण हो गया है । यह केवल कवि ही नहीं, गद्य के सुलेखक भी थे। यह राज- भक्त तथा देशभक्त दोनों ही थे प्राचीन गौरव का पूर्ण आदर करत हुए यह नवीन विचारों के प्रति भी पूर्णतया उदार थे। इस प्राचीनता तथा नवीनता के सुन्दर सामजस्य के साथ इनकी सबसे बड़ी विशेषता आधुनिक हिन्दी को जन्म देकर, उसे भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का सफल प्रयास है और इसी से वे आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता कहे गये हैं । इन क समय के प्रसिद्ध प्रसिद्ध कवियों तथा सुलखकों ने इनका जिस सम्मान की दृष्टि से देखा था, वह अभूतपूर्व है और इसका उल्लख कई स्थलों पर हुभा भी है। .