पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३९०

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३८४ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पं० श्रद्धाराम जी हिंदी के सच्चे हितैषी और सिद्धहस्त लेखक थे। इनकी सं० १६३८ में मृत्यु हुई थी। जिस दिन इनका देहान्त हुआ था उस दिन इनके मुँह से सहा निकला कि 'भारत में भाषा के लेखक दो हैं-एक काशी में, दूसरा पंजाब में । परन्तु आज एक ही रह जायगा ।' कहने की आवश्यकता नहीं कि काशी के लेखक से अभिप्राय हरिश्चन्द्र से था। जिस प्रकार भारतेन्दु जी हिन्दी गद्य को सुव्यवस्थित चलता मधुर रूप देकर उनमें नाटक, इतिहास, पुरावृत्त, धर्म, पाख्यान निबन्धादि अनेक काव्य विषयक ग्रंथों की रचना को थी उसा प्रकार हिन्दी पद्य साहित्य की भाषा को परिमार्जित कर उसमें नवीनयुग के अनुकूल कविता धारा को प्रवाहित कर हिन्दी सा- हित्य को अपना चिरऋणी कर रखा है। इनकी प्रतिमा अपनी मातृभूमि तथा मातृभाषा की टियों के निरीक्षण में जितनी पटु थी उतनी ही उसके उत्थान के प्रयत्न में भी दचित्त रही थी। भारत की चिन्ता में व्यग्र तथा हिन्दी के प्रेम के मतवाले भारतेन्दु जी ने अपना तन, मन, धन सब कुछ इन्हीं दो पर निछावर कर दिया। हिन्दी-साहित्य में इनका स्थान बहुत ऊँचा है और अमर “जबको ये जागृत रहैं जग में हरि श्री चन्द । तब लौं तुव कीरतिलता फूलहु श्री हरिचन्द ।"