पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र काशी क्षेत्र से जो हमारी भाषा का नया अंकुर उगा था, वह क्रमशः इतना बड़ा वृक्ष हो गया कि जिसकी छाया आज भारत को सीमाओं तक पहुँची है। एक दिन वह था कि जब रसके एक- मेर हितैषी राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का किसी अंग्रेजी कवि के कथनानुसार- जुगजुगात छोटे से तारे अचरज मोहि अहै तू क्या रे । घरनी सों श्रति ऊपर ऐसे चमकत नभ में हीरक जैसे ।। काशी आकाश से कुछ प्रकाश फैल चला था कि, साथ ही उसके उस का अनुयायी भारतेन्दु भी उगा एवं अपनी द्वितीया की सूक्ष्म कला की मन्द ज्योत्स्ना उद्योग के संग साहित्य सुधा सिञ्चन में प्रवृत्त हुआ और हमारे नवीन भाषाशस्य को लहलहा चला, जिसका उद्योग पूर्ण सफलता को प्राप्त हो आज मानों द्वादशा की मयङ्कमरीचिमाला से भारत को उजाला कर रहा है। एलेन्स इण्डियन मेल, लंडन (मार्च सन् १८८३ ई०) 'विजयिनी विजय वैजयंती' के विषय में लिखा गया है कि यह एक वार रसात्मक काव्य है, जो लॉर्ड बेकन्सफील्ड की नीति का समर्थन करता है। यह बाबू हरिश्चन्द्र कृत है, जिनका नाम सभी को बहुत दिनों से अच्छी तरह विदित है और जो हिन्दी के कवियों में बड़े ही प्रसिद्ध हैं। जो लोग यह कहते फिरते हैं। भारतवासियों में प्रच्ची देशभक्ति नहीं है उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे इसका अवलोकन करें। माननीय भानरेरी मैजिस्ट्रटे और विजयानगरम् राज के सुपरिटेंडेंट डाक्टर लाजरस साहब बा० हरिश्चन्द्र के कहने पर उनके विषय में मैं अपनी सम्मति