पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४०८

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परिशिष्ट श्र] दक के प्रयास का फल है। उस के संपादक देशी भाषाओं के पंडित ही नहीं हैं किन्तु एक असाधारण कवि हैं।' गार्सिन द वासी 'कविव वनसुधा' अपने नाम के अनुसार बराबर हिंदी के प्राचीन प्रथों को प्रकाशित करता रहता है । यह हिंदी तथा उर्दू के अन्य पत्रिकाओं से भिन्न श्रानो बिरोबा रखता है और इसलिए विख्यात है। इसके संपादक बा० हरिश्चन्द्र हैं।' श्रीयुत कालीकुमार मुखोपाध्याय एम० ए० हरिश्चन्द्र का हाल भी प्रतिभाशाली पुरुषव्याघ्रों के नियमा. नुसार हुआ। माता पिता के मर जाने से ऐसे बिलक्षण लड़के के हक में अच्छा हुआ। साहित्य के जितने अंग हैं लगभग सभी अंगों पर भारतेन्दु की छाया पड़ी, परन्तु मुख्य तीन विषयों पर तो इनकी छाप या मोहर हो लग गई है। प्रथम-हिन्दी गद्यशैलो निर्वाचन और उसका संस्करण, द्वितीय-हिन्दी नाटक का आविष्करण और सामयिक प्रोत्साहना तृतीय-हिन्दी भाषा को कवित्व शक्ति का प्रदर्शन और अपने सिद्धहस्त का निदर्शन । भारतेन्दु को कविता में मानसिक उड़ान के साथ साथ चित्र । चित्रण भो हाता चलता है, बरि चित्रकारो में हो आप सिद्ध इस्त हैं । रंगविरंग के चित्रपट आर बात को बात में सामने खींच सकते हैं। इनके शब्द मानों भिन्न भिन्न रंगों में शराबोर हैं । जहाँ जैसी छबि उतारनी है, ठीक उसी के अनुयायो उचित शब्दों को चुन चुन कर बिठा देते हैं और तुरंत मा जूम पड़ता है कि घटना मूर्तिमती है।