पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४३

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र काढ़ दें तो वह अग्रवाला हो जाय ।' गर्वप्रहारी भगवान ने अपने भक्त की इस अहंता को मिटाने का अवसर ला दिया। दरभंगा वाले का प्रश्न छिड़ा जिसमें उसने बड़ा रुपया व्यय कर जाति में मिलने का प्रयास किया था। भारतेन्दु जी तथा बा० शीतल- प्रसाद दोनों ही चौधरी जाति में मिलाने के पक्ष में हो गये जातिवालों ने नहीं माना । यहाँ तक कि किसी बा० सुन्दरदास के यहाँ पंचायत बैठने लगी और जाति का एक चिठ्ठा तैयार होने लगा । भारतेन्दु जी इतने पर भी अपनी बात पर डटे रहे, पर जब बा० बुलाक़ीदास जी ने उस चिट्ठे पर हस्ताक्षर कर दिया तब वे अपनी एकमात्र कन्या को न छोड़ सके और पाँच रुपये अपने ही ठाकुर जी को भेंट कर प्रायश्चित की । बा० शीतल- प्रसाद अपनी बात पर अड़े रहे, इस लिए वे जाति के वाहर रह गए। बा० शीतलप्रसाद तथा उनके भाई निस्संतान भी थे इस लिये पछाही अग्रवालों की चौधराहट इसी वंश में कुलकुला कर रह गई। इनकी सवारी बड़े धूम-धाम से निकलती थी। पचास साठ सिपाही, आसा, बल्लम, तलवार, बंदूक लिये साथ रहते थे। यह जामा पगड़ी आदि पहिर कर तामजाम पर सवार होकर निकलते थे और आगे-आगे नकीव बोलता चलता था। इन्होंने बड़े दीवानखाने की एक मंजिल कुछ विवाद हो जाने के कारण एक ही रात्रि में उठवाई थी। इसके ऊपर ठाकुर जी का स्वर्ण-कलश सुशोभित एक मन्दिर है जो नव कोटि नारायण नाम से प्रसिद्ध है। इनके समय में श्रीगोपाल मन्दिर के गोस्वामी गिरिधर लाल जी विद्वत्ता तथा चमत्कार-शक्ति के लिए प्रसिद्ध हो रहे थे, इस लिये ये भी उनके शिष्य हुए । वे महाराज इन पर बहुत स्नेह रखते थे तथा उनकी पुत्री श्री श्यामा बटी जी भी इन्हें भाई के ।