पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/५६

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पूवज-गण ४३ के तालाब का जीर्णोद्धार कराया था। यह तालाब चारों ओर से पक्का है और पहिले इसमें जल भी भरा रहता था पर नल ऊँची हो जाने से अब पानी कम रहता है। इसी तालाब पर एक मंदिर बनवा कर देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित करने का इनका विचार था, पर वह पूर्ण न हो सका । मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर बनी थी। सन् १८६४ ई० की कृषि-प्रदर्शनी में इनके बाग़ के फूलों. पर पुरस्कार तथा सनद भी मिली थी। गंभीरता के साथ-साथ स्वभाव विनोदप्रिय भी था। अपनी एक चिड़चिड़ही मौसी पर निम्नलिखित कविता बनाई थी। घड़ी चार एक रात रहे से उठी घड़ी एक गंग नहाइत है। घड़ी चार एक पूजा पाठ करी घड़ी चार एक मदिर जाइत है घड़ी चार एक बठ बिताइत है घड़ी चार एक कलह मचाइत है। बलि जाइत है ओहि साइत की फिर आइत है फिर आइत है ॥ अपने घर के श्री ठाकुर जी की सेवा और दर्शन का इन्हें ऐसा अनुराग था कि इन्होंने कभी यात्रा का विचार ही नहीं किया। चरणाद्रि में श्री महाप्रभु जी के दर्शन को कभी जाते तो दूसरे ही दिन लौट आते थे। यहाँ तक कि मृत्यु के समय जब इन्होंने अन्य सभी मोह-विकार को तृणवत् त्याग दिया था तब भी ठाकुर जी के सामने यही कहा था । कि "दादा तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।” पाँच वर्ष की जव अवस्था थी तब मुडन के लिए मथुरा तथा बैजनाथ जी गये थे। भारतेन्दु जी के जन्म के अनन्तर सं० १९०७ वि० में पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिये यह एक बार गया गये थे । पन्द्रह दिन की गया का विचार करके यह गये पर श्रीठाकुर जी के दर्शन अर्चन न मिलने से यह ऐसे विकल कि तीन ही दिन वहाँ ठहर कर लौट आए। वैष्णव- धर्म पर ऐसा विश्वास था कि इन्होंने-