पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/६

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प्रस्तावना

आचार्यवर दंडी ने बहुत ठीक कहा है कि-

आदिराजयशोबिम्बमादर्श प्राप्य वाङमयम् ।
तेषामसन्निधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति ॥


वाणी रूपी दर्पण में पूर्वनरेशों के यश रूपी प्रतिबिंब के प्राप्त रहने पर उनके न रहने पर भी वे नष्ट नहीं होते। अर्थात्क वियों तथा लेखकों द्वारा निबद्ध पहले के महाराजाओं के कीर्ति स्वरूप जोवनचरित्रों के रहते हुए उन राजाओं के नष्ट हो जाने पर भी वे जीवित से बने रहते हैं। उनके विचार, उनकी कृतियाँ सदा बनी रहती हैं और वर्तमान तथा भविष्य के मनुष्यों के लिये आदर्श होती हैं। मनुष्य की कृतियों में, यदि देखा जाय, तो भमरत्व की मात्रा सबसे अधिक पुस्तकों ही को प्राप्त है। महाकवियों तथा सग्रन्थकारों की रचनाएँ ही अमर पद को प्राप्त हो सकती हैं। विशाल स्मारक भवन, दृढ़तम मन्दिर, चित्र आदि सभी नष्ट हो जाते हैं पर ये अमर ग्रन्थ रह जाते हैं। आज से दो चार सहस्र वर्ष पहिले लोगों के क्या विचार थे, वे क्या सोचते समझते थे, उन सब का पता इन ग्रन्थों से लग जाता है, पर उस समय की अन्य मानवी कृतियाँ कभी कभी टूटी फूटी अवस्था में अन्वेषकों द्वारा खोज निकाली जाती हैं। पुस्तकों में एक विशेषता यह भी है