पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/६३

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30 भरतेंदु हरिश्चन्द्र [कवित्त] सोर तमोर को अथोर फैलो चारों ओर, दुरी तम सैन ज्यों कुमति बुध दडिता । कंछ कैदखाने सी निकलि चले अल वृन्द पति दोसा दोस सों सरोस भई खडिता ॥ 'गिरिधर दाई' कहै सकुची कुमो दनी यों, देखि पर पुरुष लजात जैसे पंडिता । वरुन अरुनत'इ छाई छिति छोरन लौं, बिंबलौं तरति विब प्राची करी मण्डिता ।। [छप्पय] सूर सुवन सुत सू' दुति सूर चल्यो सूर बर । कुंडल मीन प्रकार कमठ समधरे चरन कर ॥ सित बराह तिय ख्यात सुजस जरांसह कोपधर ॥ सँग भट बावन सहस सबै भृगुपति सम धनुधर । अभिराम बीर बलराम को बीर धीर बुद्ध मुकुट-मनि । पर कों न मिलत कलको घी सगर जाके संग टानि ।। [कवित्त कज्जल सो रंग मोहैं सज्जल जलद जोहि , उज्जल बरन पर रदन सोहावते । मूल मखतूल की कुसु भन सों बोरी मनो, कुंभन सों धुव धाम कुमन गिरावते ।। बम परि-याहन अचंभ भरे जोहि जिन्हैं , दंभ भरे रंभ खभ पीरि महिनावते। प्रकरि प्रकरि करि उकरि डकरि बर , पकरि पकरि कर सिक्कर फिरावते ॥