पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/७६

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र था । जब इनकी अवस्था नव वपं की थी तभी सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० घनश्याम जी गौड़ ने इनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया और वल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी श्री ब्रजलाल जी महाराज ने इन्हें गायत्री मंत्र का उपदेश दिया। इस उत्सव में महफिल और जेवनार की बड़े समारोह से तैयारी होरही थी कि बा० गोपाल- चन्द्र जी का स्वर्गवास हो गया, जिससे जेवनार के लिये बनी हुई कुल मिठाई आदि दीन दुःखियों में वितरीत कर दी गई। भारतेन्दु जी उनको मृत्यु के समय का वृत्तांत इस प्रकार कहा करते थे कि 'पिता जी की वह मूर्ति अब तक मेरी आँखों के सामने विराजमान है। तिलक लगाए बड़े तकिए के सहारे बैठे थे। दिव्य काँति से मुखमंडल देदीप्यमान था। देखने से कोई रोग नहीं प्रतीत होता था । हम दोनों भाइयों को देखकर उन्होंने कहा कि शीतला ने बाग मोड़ दी है। अच्छा, अब ले जाओ।' शिक्षा इनकी बाल्यावस्था ही से प्रारम्भ हो गई थी और पं० ईश्वरीदत्त ही शुरू में इन्हें पढ़ाते थे । मौलवी ताजअली से कुछ उर्दू पढ़ा था और अंग्रेजी को आरंभिक शिता इन्हें पं० नंदकिशोर जी से मिली थी। कुछ दिन इन्होंने ठठेरी बजारवाले महाजनी स्कूल में तथा कुछ दिन राजा शिवप्रसाद जी से शिक्षा प्राप्त की थी। इसी नाते यह उनको गुरुवर लिखते थे। पिता की मृत्यु पर यह कीन्स काँलेज में भर्ती किए गये और समय पर वहाँ जाने भी लगे। इनकी प्रकृति स्वतंत्रता प्रिय थी। पिता की मृत्यु हो जाने से यह और भी स्वच्छंद हो गये थे। माता की ही नहीं, अंब यह और किसका सुनते ? विमाता तथा भृत्यों के कथन पर यह क्यों ध्यान देने लगे थे ? इस कारण इनकी शिक्षा अधूरी रह गई। पढ़ने में कभी मन नहीं लगाया पर प्रतिभा विलक्षण थी इसलिये पाठ एक बार सुनकर ही याद कर लेते थे