पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/७८

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भारतेंदु हरिचन्द्र जो घर की स्त्रियों के विशेष आग्रह सं करना आवश्यक हो गया था । सं० १६२२ वि० में ये सपरिवार जगन्नाथ जी गए। इस संवत में कुछ शंका है क्योंकि इसमें भारतेन्दु जी का पन्द्रहवाँ वर्ष पूर्ण होता है । उस समय काशी से पुरी तक बराबर रेल नहीं गई थी और इसलिए इतनी लम्बी यात्रा के पहिले सभी सम्बन्धी इष्ट मित्र मिलने आया करते थे । जब इन लोगों का डेरा नगर के बाहर पड़ा तब सभी लोग मिलने आने लगे। उनमें एक महापुरुष भी आए थे जो बाल्यकाल लाँघ कर युवा होते हुए अमीरों के पितृहीन पुत्रों तथा बिगड़े हुए रईसों के परम हितैषी थे। इन्होंने बा० हरिश्चन्द्र जी को विदा होते समय अशर्फियाँ दी और इनके इस देने का अथ पूछने पर आपने यह फर्माया कि 'आप लड़के हैं। इन भेदों को नहीं जानते, मैं आपका पुश्तैनी नमकख्वार हूँ, इसलिए इतना कहता हूँ। मेरा कहना मानिए और इसे पास रखिए । काम लगे तो खर्च कीजिएगा नहीं तो फेर दीजिएगा । मैं क्या आप से कुछ मांगता हूँ। आप जानते ही हैं कि आपके यहां बहूजी का हुक्म चलता है। जो आपका जी किसी चीज़ को चाहा और उन्होंने न दिया तो उस समय क्या कीजिएगा ? होनहार प्रबल था, ये उसकी बातों में आ गए और गिन्नियां रख ली। एक ब्राह्मण समवयस्क को इन्होंने अपना खजांची बना दिया। अस्तु, इस प्रकार मिलने-जुलने के बाद यात्रा आरंभ हुई। ऋण लेने की आदत, लोगों का कथन है, कि इनमें इसी समय से पैदा हुई पर भारतेन्दु जी ने स्वयं इस विषय पर एक याददाश्त में कुछ और ही लिखा है, जिसका सारांश यह है कि एक बार बुढ़वामंगल के अवसर पर एक आदमी लालचन्द्रजोति कलकत्ते से लाया था। यह भी घर की नाव पर मेला देखने गये थे। इन्होंने चार रुपये की बुकनी जला डाली। मुनीब ने उसके