पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/७९

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पूर्वज-गण ६७ रुपये नहीं दिए और इनको विमाता जी ने भी यह वृत्तान्त सुन- कर रुपये न देने की आज्ञा दे दी । इन्होंने एक दिन भोजन भी नहीं किया पर वहां किसे परवाह थी, माता-पिता चल ही दिए थे। अन्त में इन्होंने लाचार होकर किसी से चार रुपये ऋण ले कर उसे चुकाया था। उस समय तक काशी से रानीगंज तक ही रेल गई थी, इस लिए उसके बाद बैलगाड़ियां तथा पालकियां ठीक कर ये लोग बढ़े। वर्धमान पहुँचने पर ये किसी बात पर अपनी विमाता से रुष्ट हो गये और घर लौट जाने की धमकी दी। किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वे लोग जानते थे कि इनके पास राह खर्च के नगद हैं कहां कि वे घर लौटेंगे ? इधर उन्होंने अपने खजाँची को साथ लिया और अशर्फी भुना कर स्टेशन जा 'पहुँचे । जब यह सामाचार ज्ञात हुआ तब इनके छोटे भाई साहब इन्हें लौटा लाने को भेजे गये । छोटे भाई को देखकर ये फिर लौट आए पर यात्रा में ये भुनी हुई अशर्फियां व्यय हो गई और इन्हीं के सूद आदि में हैंडनोट अदलबदल कराते उस पुराने हितैषी के हाथ में इनकी दस पन्द्रह हजार की एक हवेली चली गई। पुर्वोक्त घटनाओं से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इन पर इनकी विमाता का विशेष प्रेम नहीं था । साधारण गृहस्थों के बालक भी किसी समय यदि रुपये की चीज़ लेकर तोड़फोड़ डालते हैं तो उनके माता-पिता उन्हें ताड़ना देते हुए भी उसका मूल्य अवश्य दे देते हैं और इन बालकों को ऋण लेने के लिये कभी बाध्य नहीं करते। उसी प्रकार दूसरी घटना में कोई माता-पिता अपनी संतान को, यह जानकर भी कि उसके पास धन नहीं है, काशी से इतनी दूर वर्धमान के डेरे से जरा भी दूर बाहर नहीं जाने देगा, पर यहां जब वे रानीगंज स्टेशन पहुंच गए और उनके