पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/८०

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भारतेंदु हरिचन्द्र पास रुपये होने की खबर मिली तब भाइ साहब मिलने के लिये आए। यह स्वभावत: देखा जाता है कि सभी माता-पिता का अपनी संतानों पर समान रूपेण स्नेह नहीं होता और माता का तो प्रायः छोटी संतान ही पर होता है। तब किसी विमाता में अपने पति के बड़े पुत्र पर कम स्नेह होना कुछ अस्वाभाविक नहीं है। जगन्नाथ जी का दशान करते हुए वहाँ सिंहासन पर भोग लग ने के समय भैरव मूर्ति का बैठाना देखकर. भारतेन्दु जी ने इसको अप्रामाणिक सिद्ध किया और अंत में वहां से भैरव-मूर्ति इटवा हो कर छोड़ा । इसी पर किसी ने तहकीकात पुरी' लिखा, तब आपने उसके उत्तर में 'तहकीकात पुरी की तहकीकात, लिख डाला। जगदीश यात्रा से लौटने पर 'संवत् शुभ उनईस सत बहुरि तेइसा मान' में यह बुलंदशहर गए। इसके अनंतर यह फिर एक बार बुलंदशहर गए थे, क्योंकि वहीं से इनके भ्रातृपपुत्र बा० कृष्णचन्द्र को लिखी गई इनकी एक चिट्ठी मिली है जो स्यात् भारतेन्दुजी की मृत्यु के कुछ ही पहले को है । बा० कृष्णा चन्द्र जा का जन्म सं० १६३६ के फाल्गुन में हुआ था और वे जब कुछ बातचीत करने योग्य हुए होंगे तभी उन्हें यह पत्र लिखा गया होगा। यह पत्र अविकल यहाँ उद्धृत किया जाता है-"चिरंजीव श्रीकृष्ण, प्यारेकृष्ण, राजाकृष्णा, बाबूकृष्ण, आँग्बों की पुतली । तुम्हारा जी कैसा है ? मर्दी मत खाना, रसोई रोज खाते रहना । तुमको छोड़ कर हमारा अख्तियार होता तो क्षण भर भी बाहर नहीं जाते! क्या करें, लाचारी से झख मारते हैं। कृष्ण ! तुम्हारा अभी कोमल स्वच्छ चित्त है। तुम हमारे चित्त को ध्यान से जान सकते किन्तु बुद्धि और बाणी अभी स्फुरित नहीं है। इससे तुम और किसी पर उसे प्रकट नहीं कर सकते हो। परमेश्वर के अनुग्रह