पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/८१

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"पूर्वज-गण ६६ से उसकी उस स्वाभाविक कृपा से जो आज तक इस वंश पर है, तुम चिरंजीव हो। तुम्हारे में उत्तम गुण हों। हम इस समय बुलंदशहर में हैं। आज कुचेसर जायँगे।" इसके एक एक अक्षर से सच्चा प्रेम टपकता है पर साथ ही कुछ और भी ध्वनित कर रहा है । संक्षेपतः वह यही है कि इनका चित्त घर के लोगों से बहुत दुखी था । सं० ११२८ वि० में यह फिर यात्रा करने निकले और इस बार- प्रथम गए चरणाद्रि कान्हपुर को पग धारे । बहुरि लखनऊ होइ सहारनपुर सिधारे । तहँ मन्सूरी होइ जाइ हरिद्वार नहाए । फेर गए लाहौर सुपुनि अम्बरसर आए ।। दिल्ली दै ब्रज बसि आगरा देखत पहुँचे आय घर । तैंतीस दिवस में यातरा यह कीन्ही हरिचंद्र बर ॥ इसके छः वर्ष बाद सं० १९३४ में यह पहिले पुष्कर यात्रा करने अजमेर गये और वहाँ से लौटने पर उसी वर्ष हिन्दीवर्धिनी सभा द्वारा निमंत्रित होकर प्रयाग गए। हिन्दी की उन्नति पर एक ही दिन अट्ठानबे दोहे का एक पद्य-वद्ध व्याख्यान तैयार कर उक्त सभा के अधिवेशन में पढ़ा था। इसमें ऐक्य, स्त्री-शिक्षा, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार आदि सभी पर कुछ न कुछ कहते हुए निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल' स्पष्ट...किया गया है। यह लेक्चर आज भी प्रत्येक देश तथा मातृभाषा-प्रेमी के लिये पठनीय है । इसके अनंतर सन् १८७६ ई. के दिसम्बर मास में यह 'इन सब बातों की मानो कसौटी सरीखे' मान्य होने के कारण प्रयाग पुनः निमंत्रित होकर गाए थे। वहाँ की आर्य- जाट्य सभा ने लाला श्री निवासदास कृत 'रणधीर और प्रेम