पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/८२

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190 भारतेंदु हरिचन्द्र मोहिनी' की अभिनय ६ दिसंबर को सफलतापूर्वक किया था तथा नाटककार महोदय भी दिल्ली से पधारे थे। सं० १६३६ में भारतेन्दु जी ने सरयूपार की यात्रा की । 'इतना ही धन्य माना कि श्री रामनवमी अयोध्या में कदी।' यहाँ से हरैया बाजार, बस्ती और मेहदावल होते हुए गोरखपुर गए तथा वहाँ से घर लौट आए। इस यात्रा का वणन हरिश्चन्द्र चन्द्रिका खंड ६ सं०८ में प्रकाशित हुआ है, जिसके पढ़ने में बड़ा आनन्द आता है। कैसा सजीव विनोदपूर्ण विवरण है। इसी साल यह जनकपुर गए । रेलयात्रा के कष्ट तथा आराम का मनोहर वर्णन किया है। सीता-बल्लभ स्तोत्र तथा अन्य कुछ पद इसी अवसर पर बनाए थे। एक पद यों है- जयति जनक लली। मिथिलापुर मंडनि महरानी निमिकुल-कमल कली ।। जगस्वामिनि अभिरामिनि भामिनि सब ही भांति भली । 'हरीचंद जा मुख कमलन पर लोभ्यो राम अली ।। दूसरे वर्ष सं० १६३७ में यह महाराज काशीराज के साथ वैद्यनाथ जी की यात्रा को गये। इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन-चन्द्रिका के खंड ७ में प्रकाशित हुआ है। वहाँ के मन्दिर की प्रशस्तियों की प्रतिलिपि तथा मन्दिर विषयक दंत-कथा भी छापी है। इसका विवरण भी बड़ा ही रोचक है । पाठकों के लिए कुछ अंश उद्धृत किया जाता जयति. जय "बादल के परदों को फाड़ फाड़ कर उषा देवी ने ताक झाँक प्रारम्भ कर दी । परलोक गत सज्जनों की कीर्ति की भाँति सूर्य- नारायण का प्रकाश पिशुन मेघों के वागाडम्बर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा। प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ।